आज़ादी - बदलते अर्थ
आज़ादी - बदलते अर्थ


कभी सुना है यारों तुमने
बदला करते शब्दों के अर्थ
जितना भी दिमाग लगा लो
होगी सारी सोच व्यर्थ,
यह कैसी उलझन है बन्धु
कैसी है यह पहेली
आओ अब मैं सुलझाता हूं
पहेली नयी नवेली,
आज़ादी की बात नहीं थी
सन् सत्तावन से पहले
इसका मूल्य चला पता जब
ब्रिटिश ने डोरे डालें
हाल हुआ भारत का
जैसे जाल में फंस गया शेर
भरत के भारत को जकड़ ले गई
गुलामी की जंज़ीर
नाश हो गई थी सम्पदा
सोने की चिड़िया हुई शिकार
अंग्रेज़ी अत्याचारों से
मच गया था हाहाकार
कभी न ढूंढा था हमने
अर्थ गुलामी-आज़ादी का
सकते में था भारतवासी
कैसा तुषारापात हुआ था
छटपटा रहा था पिंजड़े से
निकलने को मेरा देश भारत
पिंजड़ा तोड़ने में काम आए
गांधी, बोस, आज़ाद, भगत
दो सौ बरसों में आज़ादी का
अर्थ समझा था भारत
फिर इक सुबह आई
उन्नीस सौ सैंतालीस की 15 अगस्त
जब आज़ादी की भारतीयों ने
ली थी बड़ी अंगड़ाई
उगते सूरज के संग संग
तिरंगी पताका भी फहराई
सूरज की किरणों से
स्वर्णिम हुई थी गंगा
गढ़ आला पण सिंह गेला
जश्न में थी कहीं उदासी
वीरगति पाई अपनों ने
नतमस्तक हुए देशवासी
इस आज़ादी का मानो तुम
अर्थ महान् हुआ था
अर्थ यही कहने का प्यारो
अर्थ फिर से बदला था
अब जब हम आज़ाद हैं यारो
अलग है अर्थ फिर हुआ
मनमानी की छूट हमें हो
नहीं हो कोई बाधा
बत्ती हरी या लाल हो
हमें न मतलब आता
चलें सड़क पर या पटरी पर
मनमर्जी हो यह हमारी
हमें न टोको हमें न रोको
है हमें आज़ादी प्यारी
क्यों करते चालान हैं
हम आज़ाद हिन्द के वासी
रुकने का हमें वक्त नहीं है
हम हैं भारतवासी
आज़ादी का अर्थ है अब
पन्द्रह को तिरंगा फहराना
छूट सुबह की इस चर्या से
छुट्टी मनाने जाना
बच्चे कहते क्या मुश्किल है
सोने भी नहीं देते हैं
15 अगस्त छुट्टी वाले दिन
सुबह उठा देते हैं
यारो इस आज़ादी का तुम
खुद ही मतलब निकालो
देश था मेरा सोने का
सोना फिर से उसे बना लो!