ग़ज़ल
ग़ज़ल
मुर्दों के इस शहर में तुम सांस लेते क्यूं हो,
सो गयी है रूह जिनकी उनको आवाज देते क्यूं हो!
धूल बनकर उड़ जाते हैं जो हवाओं के संग,
ऐसे रेत से तुम अपना घर बनाते क्यूं हो!
थक जाते हैं जिनके पांव कदम-दो-कदम,
ऐसे लोगों से लंबी रेस की आस बंधाते क्यूं हो!
धोखा देना रही है सदा फितरत जिनकी,
ऐसे लोगों पर तुम विश्वास दिखाते क्यूं हो!
जकड़े हैं जिनके विचार आज भी गुलामी की जंजीरों में,
उनके अंतर्मन में तुम आत्म-सम्मान जगाते क्यूं हो!
पत्थर फेंकने की आदत है जिन्हें दूसरों के आशियानों पर,
ऐसे लोगों को शीशों के घरों में बुलाते क्यूं हो!