रंग है
रंग है
रंग है ये मानवता का
और सब पर चढा हुआ है।
ये बात और है कि
उस पर ढेर सारे रंग
जमें हुये है,
फिर भी दूर से झलक रहा है
मानवता का रंग।
जैसे सूरज ढका हूआ है
बादलों से
और सोच रहा है
ये तो मौसम है
बादल हैं
बरसेगें,चले जायेंगें ।
अचानक ऐसा कुछ हुआ
सूरज आश्वस्त हो गया कि
ये बादल मौसमी भर नहीं है
उससे पृथ्वी के सम्बंध
काटने के लिये जमे हुये हैं
तो थोड़ा बदला सूरज
थोड़ा गर्म हुआ
और जमें हुये बादल पिघलने लगे
जैसे मानवता के उपर
जमें हुये रंग पिघल रहे हैं
और भावनाओं से आवेशित मनुष्य
लौट रहा है
अपनी मानवता की जमीन पर।