एक तरफा प्रेम...
एक तरफा प्रेम...
मैं रोज टांग आती हूँ दो आँखें व्हाट्सएप बॉक्स की मुँडेर पर
की उसका सन्देश आने को है सोचकर...
फ़क़त भरम की कोई सीमा नहीं होती ये कहा था किसी ने किसी को देखकर...
घड़ी के कांटे से तेज़ फुर्ती में रोज टक टक देखती उसकी प्रोफाइल्स को
जैसे मौसम के विचित्र सुहाने पल हर दफ़ा बदलते हों...
एक मात्रा कभी कम हो जाती तो कभी ज्यादा लग जाती की
मर्यादा भी तो होती है दो प्रेम के बीच, छोड़ देती हूं प्रेम के कुछ खत बस यही सोचकर...
मैं रोज टांग आती हूँ दो आँखें
कुछ सोचकर....