शाम
शाम
शहर की शाम बड़ी बदल चुकी है
पहले की तरह अब सुकून नहीं है
दफ्तर से आकर जहां आराम मिलता था
दिन भर के कार्यों पर विचार-विमर्श होता था
बच्चे अपनी स्कूल की सारी बातें बताते थे
सारे इक संग बैठ खाते और बतियाते थे
अब शामें चकाचौंध से जगमग सी जगमगाती हैं
बाजारों में माल और बड़ी बड़ी दुकानें हैं
ज़रूरत के समान से ज़्यादा गैरजरूरी घर आता है
झूठी शापिंग में अक्सर शाम का समय खर्च हो जाता है
चकाचौंध में साफ़ कुछ भी नज़र नहीं आता है
सरल सी अपनी सी शामें जाने कहां छुप गईं
शायद शहरों की तेज रोशनी में धुंधली सी पड़ गईं।