स्वाभिमान की डगर पर
स्वाभिमान की डगर पर
बंदिशों की लौह श्रृंखलाओं को चूर-चूर कर,
स्वाभिमान की डगर पर सदैव रही अग्रसर।
पीढ़ियों दर पीढ़ियों त्रासदी झेलने को अभिशप्त,
जिस पर सभी ने चाहा सिद्ध करना अपना पुरुषत्व।।
अपनी इच्छाओं का करती रही दमन,
और बिखेरती रही रोशनी हर पल जीवन भर।
माना कि स्त्री के पास सृजन का वरदान है,
कभी दुर्गा, कभी काली और लक्ष्मी का प्रतिमान है।।
उसके इर्द-गिर्द जकड़ा हुआ जटिल मोहपाश है,
जहाँ आज भी उसे अपने अस्तित्व की तलाश है।
छूना चाहती है सफलता का उच्चतम शिखर,
अपनी अस्मिता की चाह में चल पड़ी है डगर।।
कभी खाया धोखा तो कभी प्रेम ने छला,
शक्ति की प्रतिमूर्ति को बना दिया अबला।
भूमिकाओं को निभाते थक चुके हैं कदम,
फिर भी बिना ठिठके गतिमान है हरदम।।
साहित्य की धनी, नृत्य और संगीत से सनी,
अनगिनत कलाओं में पारंगत विज्ञान भी रहा समाहित।
चौंकाया हर परिस्थिति में पाकर अनेक उपलब्धियाँ,
फिर भी लोग खोजते रहे बस उसकी कमियाँ।।
आज भी उसे अपने अस्तित्व की तलाश है,
न केवल स्व बल्कि स्वत्व की तलाश है।
एक सुन्दर और सुखद भविष्य के साथ-साथ,
सृष्टि और दृष्टि लिये स्वाभिमान के डगर की तलाश है।
