श्रीमद्भागवत-२२७; कृष्ण के विरह में गोपियों की दशा
श्रीमद्भागवत-२२७; कृष्ण के विरह में गोपियों की दशा
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
भगवान् जब अंतर्धान हो गए
व्रजयुवतियों का ह्रदय तब
जलने लगा विरह की ज्वाला में।
भगवान् की प्रेमभरी मुस्कान
और विलासभरी चितवन ने
चुरा लिया था उनका चित
कृष्णमय हो गयी थीं सब वे।
चाल ढाल, हास विलास और
चितवन बोलन आदि में भी
वो सारी व्रज की गोपियाँ
कृष्ण के समान बन गयीं।
वही गति मति उनके शरीर में
उतर आई भाव भंगी वही
अपने को सर्वथा भूलकर
कृष्ण स्वरुप हो गयीं थीं सभी।
लीला विलास का उन्हीं के
अनुकरण करती हुईं वे
' हे सखी, कृष्ण ही हूँ मैं '
कहने लगीं अपनी सखियों से।
उन्हीं का गान करने लगीं
बड़े ऊँचे स्वर में सभी वो
मतवाली होकर इधर उधर
ढूंढने लगीं श्री कृष्ण को।
परीक्षित, भगवान् कृष्ण भी कहीं
दूर थोड़े ही गए थे
आकाश के समान एकरस
समस्त जड़ चेतन में स्थित वे।
वे वहीँ थे, उन्हीं में थे
परन्तु उन्हें न देखकर
गोपिआँ वनस्पति, पेड़ों से
उनका पता पूछें वहांपर।
' हे पीपल, बरगद और पाकर '
वृक्षों को जाकर कहा उन्होंने
क्या तुमने देखा कृष्ण को
चित चुराकर हमारा ले गए वे।
अशोक, पुन्नाग और चंपा तुमने
बलराम के भाई को देखा क्या
स्त्री जाती के पौधों से भी पूछें
कृष्ण हमको मिलेंगें कहाँ।
तुलसी बहन, ह्रदय तुम्हारा
बड़ा कोमल, प्यारे कृष्ण तुम्हें
वो भी तुम्हे बड़ा प्यार करें
माला तुम्हारी सदा पहने रहते।
कहीं देखा है क्या तुमने
अपने प्रियतम श्यामसुंदर को
प्यारी मालती और जूही तुमने
देखा होगा प्यारे माधव को ?
क्या अपने कोमल करों से
तुमको स्पर्श करते हुए वे
आनंदित करते हुए तुम्हे
इस रास्ते से हैं गए।
रसाल, कटहल, कचनार, जामुन और
आम, नीम आदि तरुवरो !
कृष्ण बिना सूना हो रहा जीवन
उनको पाने का मार्ग बता दो।
भगवान् की प्रेयसी पृथ्वी देवी !
ऐसी कौन सी तपस्या की तुमने
कि चरणों का स्पर्श पाकर कृष्ण का
भर रही हो , परम आनंद में।
तृण, लता आदि के रूप में
रोमांच अपना प्रकट कर रही
तुम्हारा ये उल्लास, विलास जो
कृष्ण के चरण स्पर्श के कारण ही।
अरी हरिनियो ! श्री कृष्ण हमारे
कहीं इधर से तो नहीं गए हैं
देखो, देखो यहाँ कुंज कली की
मनोहर गंध आ रही है।
श्यामसुंदर इधर से विचरते
गया होंगे अवश्य, लगे ये
पूछो लताओं से, रोमांच जो इनका
ये तो है कृष्ण के नखों के स्पर्श से।
परीक्षित, इस तरह मतवाली गोपिआँ
प्रलाप करती हुई ढूंढती उन्हें
वे सब भगवानमय होकर
करने लगीं उनकी लीलाएं।
एक बनी कृष्ण, बलराम दूसरी
बहुत सी गोपिआँ ग्वालबाल बनीं
कोई बांसुरी बजा पशुओं को बुलाये
दैत्यों को मारने की लीला करे कोई।
समझे कृष्ण अपने को गोपी जो
दूसरी के गले में बाहें डालकर
कहने लगी ' मैं ही कृष्ण हूँ
देखो तुम मेरी चाल मनोहर '।
सभी कृष्ण की नकल थी कर रहीं
ऐसा करते हुए चल रहीं वन में
पता पूछ रहीं कृष्ण का
फिर भी वे, वृक्ष, लताओं से।
उसी समय एक स्थान पर
कृष्ण के चरणचिन्ह दिखे उन्हें
उन्ही चिन्हों के द्वारा ढूंढती हुईं
निकल गयीं वो आगे वन में।
कृष्ण के साथ एक व्रजयुवति के
चरणचिन्ह वहीं दीख पड़े
बड़ी व्याकुल हुईं ये देखकर
आपस में कहने लगीं वे।
किसी बड़भागिनी के चरणचिन्ह ये
भगवान की ही कोई आराधिका होगी
श्यामसुंदर ने हमें छोड़ दिया
इसी व्रजयुवति के लिए ही।
प्यारी सखिओ, भगवान् श्री कृष्ण
अपने चरणकमलों की रज से
जिसका स्पर्श कर देते है
धन्य हो जातीं हैं वे।
अरे सखी, चाहे जो भी है ये
ले जाकर हमारे कृष्ण को
अकेले ही उनकी अधर सुधा का
रस पी रही है वो।
इन चरणचिन्हों ने बहुत ही
क्षोभ उत्पन्न किया हृदय में
देखो तो उस गोपी के अब
पैर यहाँ नहीं दीख रहे।
मालूम होता है श्यामसुंदर ने
जब देखा होगा कि सुकुमारी के
चरणों में घास की नोक लग गयी
तब कंधे पर चढ़ा लिया होगा उसे।
सखियों देखो, यहाँ श्री कृष्ण के
चरणचिन्ह बहुत गहरे हैं
बालू में गड़े हैं, लगता है कि
बहुत भार उठाए हुए हैं।
देखो देखो, यहाँ व्रजबल्लभ ने
नीचे उतारा होगा प्रेयसी को
फूल तोड़ने के लिए ही
यहाँ पर उतारा है उसको।
उचक उचक कर फूल तोड़े यहाँ
पंजे धरती में गड़े हैं
अरे बालू में निशान जो
ऐडी का तो पता ही नहीं है।
परीक्षित, भगवान तो आत्माराम हैं
संतुष्ट, पूर्ण अपने आप में
उनमें दूसरा कोई है ही नहीं
तब काम की कल्पना कैसे हो उनमें।
उन्होंने बस उस गोपी के साथ में
एकांत में एक खेल रचाया
वन में भटक रही बाक़ी गोपियाँ
मतवाली सी होकर वहाँ।
इधर जिस गोपी को कृष्ण
ले गए थे एकान्त में
उसने समझा कि श्रेष्ठ मैं
बाक़ी की समस्त गोपियों से।
अपने प्रेम और सौभाग्य के
मद में मतवाली हो गयी वो
श्री कृष्ण से कहने लगी
चला ना जाए मुझसे अब तो।
मेरे सुकुमार पाँव थक गए
कंधे पर चढ़ाकर मुझे ले चलो
श्यामसुंदर ने कहा, अच्छा तुम
मेरे कंधे पर अब चढ़ लो।
ज्यों ही कंधे पर चढ़ने लगी वो
भगवान अंतर्धान हो गए
रोने पछताने लगी तब
सोचे अपराध किया है मैंने।
परीक्षित, बाक़ी गोपियाँ सभी
चिन्हों के सहारे वहाँ आ पहुँचीं
थोड़ी दूरी से उन्होंने देखा
वो गोपी अचेत है पड़ी।
उन्होंने जब जगाया उसको
बतलाया उस गोपी ने तब उनको
कैसे प्रेम और सम्मान मिला उसे
और कैसे रुष्ट किया उसने कृष्ण को।
उसकी बात सुनकर गोपियों के
आश्चर्य की सीमा ना रही
ढूँढती रहीं वो श्री कृष्ण को
जब तक चाँदनी छटक रही थी।
उन्होंने जब देखा के जंगल में
घोर अंधकार हो गया
तब उधर से लौट आयीं वो
देखकर कि जंगल भी है घना।
परीक्षित, गोपियों के तन मन दोनो
श्री कृष्णमय हो गए थे
कोई बात नहीं थी निकलती
श्री कृष्ण के अतिरिक्त वाणी से।
शरीर से केवल श्री कृष्ण के लिए
कृष्ण की चेष्टाएं हो रहीं
रोम रोम उनका और आत्मा भी
उनकी कृष्णमय हो रही थी।
अपने शरीर की सुध भी ना उन्हें
फिर घर की सुध कौन करे
रोम रोम प्रतीक्षा कर रहा
जल्दी से कृष्ण हमें मिलें।
यमुना जी के पावन पुलिन पर
रमनरेती में लेट गयीं वे
एक साथ मिलकर सभी फिर
गुणों का गाण करें कृष्ण के।