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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -१६७;भगवान् वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी मांगना,बलि का वचन देन

श्रीमद्भागवत -१६७;भगवान् वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी मांगना,बलि का वचन देन

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ये वचन सुनकर बलि के

उनसे कहने लगे प्रभु वामन

बात आपकी कुलपरम्परा के अनुसार है

और धर्मभाव से परिपूर्ण।


वंशपरंपरा में आपकी

ऐसा कोई हुआ ही नहीं

जिसने ब्राह्मणों को दान न दिया

या प्रतिज्ञा से मुकरा हो कोई।


आपकी वंशपरम्परा में प्रह्लाद जी

निर्मल यश से ही वो अपने

शोभायमान होते हैं

जैसे चन्द्रमाँ हो आकाश में।


हिरण्यक्ष जैसे वीर का जन्म भी

कुल में हुआ था आपके

उसपर विजय प्राप्त की

बड़ी कठिनाई से विष्णु ने।


परन्तु उसके बाद भी उन्हें 

बार बार स्मरण हो आया 

हिरण्यक्ष की शक्ति का

और उसके असीमित बल का।


उसे जीत लेने पर भी

विजयी नहीं समझें विष्णु अपने को

भाई की मृत्यु का पता चला हिरण्यकशिपु को तो

वैकुण्ठ धाम थे पहुंच गए वो।


विष्णु भगवान् ने जब ये देखा

हिरण्यकशिपु शूल लिए आ रहा

मेरे ऊपर धावा बोल दिया

उन्होंने तब ये विचार किया।


मैं जहाँ जाऊँगा वहींपर

मेरा पीछा करे दैत्य ये

इसके ह्रदय में प्रवेश करूं

जिससे मुझे ये देख न सके।


बहिर्मुख ये दैत्य है

वस्तुओं को देखे बाहर की

शरीर को सूक्षम बनाकर

ह्रदय में बैठ गए उसके विष्णु जी।


हिरण्यकशिपु ने ढूंढा विष्णु को

छान मारा उनका लोक था

परन्तु जब उनका कुछ पता न चला

क्रोध में वो सिंहनाद करने लगा।


कहने लगा, अवश्य ही भ्रातृघाती 

उस लोक में चला गया है

जहाँ जाकर फिर लौटता नहीं कोई

वैरभाव का अब क्या फायदा है।


आवश्यकता नहीं वैरभाव की

क्योंकि ये समापत हो देह के साथ में

वामन कहें बलि, तुम्हारे कुल में

ऐसे ऐसे महारथी हुए।


हे महाराज, आपके पिता विरोचन

ब्राह्मणभक्त थे वे बड़े ही

यहाँ तक कि शत्रु देवताओं ने

ब्राह्मणों का वेश धार कर ही।


उनसे आयु का दान माँगा तो

उन्होंने अपनी आयु दे डाली

ब्राह्मण वेश में देवताओं के

छल को जानते हुए भी।


आचरण करते हो आप भी

अपने कुल के उस धर्म का

जिसका शुक्रचार्यु आदि और

आपके पूर्वजों ने किया था।


दैत्यराज आप श्रेष्ठ हैं

मुँहमाँगी वस्तु देने में

माँगूँ मैं थोड़ी सी पृथ्वी

पैरों के तीन डग माँगूँ आपसे।


अपनी आवस्यकता के अनुसार ही

दान स्वीकारे, विद्वान् पुरुष जो 

और प्रतिग्रहजन्य पाप से

इससे बच जाता है वो।


राजा बलि कहें, ब्राह्मणकुमार तुम

बातें करते वृद्धों जैसी

पर तुम्हारी ये बुद्धि है जो

बच्चों जैसे है अभी भी।


अभी तुम हो भी तो बालक ही

इसलिए तुम समझ रहे नहीं

मैं एकमात्र अधिपति लोकों का

दे सकता पूरा द्वीप भी।


हानि लाभ तुम अपना न समझ रहे

एक बार मेरे पास आ गया जो

आवश्यकता नहीं पड़नी चहिये

किसी और से मांगने की कभी उसको।


जितनी आवश्यकता हो तुम्हे

उतनी भूमि तुम मुझसे मांग लो

वामन जी कहें, राजन, विषय ये

पूर्ण न कर सकें कामनाओं को।


संसार के ये सब विषय जो

पूर्ण न कर सकें कामनाएं भी

एक मनुष्य की, जो संतोषी न हो

और इन्द्रियां जिसके वश में नहीं।


तीन पग भूमि में जो

संतोष नहीं है वो कर लेता

वो संतुष्ट नहीं हो सकता

एक द्वीप भी जो उसको दे दिया।


बनी रहेगी उस के मन में

इच्छा सातों द्वीप पाने की

सुना है पृथु, गय आदि तो थे

सातों द्वीपों के अधिपति।


परन्तु ये सब होने पर भी 

तृष्णा का पार न पा सके 

प्रारब्ध से मिल जाये जो 

संतुष्ट रहते हैं जो उसी में। 


वही पुरुष ही अपना जीवन 

सुख से व्यतीत करता है 

परन्तु दुखी रहता ही है जो 

वश में इन्द्रियों को न रखता है। 


राज्य होने पर भी तीनों लोकों का 

असंतोष रहता है ह्रदय में 

धन और भोग संतोष न देते 

जन्म मृत्यु का कारण जीव के। 


जो कुछ भी प्राप्त हो जाए 

संतोष कर ले मनुष्य उसी में 

इस संतोष के कारण ही 

उस जीव को है मुक्ति मिले। 


जो ब्राह्मण सतुष्ट रहता है 

स्वयं प्राप्त वस्तु में ही 

उसके तेज में वृद्धि होती 

असंतुष्ट के तेज में कमी है होती। 


इसलिए मैं आपसे केवल 

तीन पग पृथ्वी ही मांगता 

मेरा काम बन जायेगा इससे 

इससे ज्यादा की न आवश्यकता। 


करना चाहिए संग्रह धन का उतना 

जितनी उसकी आवश्यकता हो 

जब ऐसा कहा भगवान् ने 

हंस पड़े राजा बलि जो। 


उन्होंने कहा, अच्छी बात है 

जितनी तुम्हारी इच्छा हो ले लो 

जल पात्र उठाया उन्होंने 

तीन पग पृथ्वी के संकल्प को। 


शुक्राचार्य जी सब कुछ जानते 

लीला भगवान् की छिपी न उनसे 

पृथ्वी देने को तैयार देख 

उन्होंने तब कहा बलि से। 


विरोचनपुत्र, तुम न जानते 

तेरा सब कुछ ले लेंगे ये 

छीन लेंगे दान में सब 

तुमने प्रतिज्ञा की है जिनसे। 


अन्याय होने जा रहा है 

बहुत बड़ा यह दैत्यों पर 

स्वयं भगवान् ही खड़े हुए हैं 

योगमाया से ब्राह्मण बनकर। 


तुम्हारा राज्य, ऐश्वर्य, लक्ष्मी 

तेज और कीर्ति छीनकर तुमसे 

ये भगवान् विष्णु ही हैं 

इंद्र को फिर दे देंगे ये। 


विशवरूप ये, तीन पग में ही 

नाप लेंगे सारे लोकों को 

निर्वाह अपना कैसे करोगे 

जब सब कुछ दे दोगे इनको। 


एक पग में ये विशवव्यापक 

नाप लेंगे पूरी पृथ्वी को 

दुसरे पग में स्वर्ग ये नाप लें 

कहाँ रखोगे तीसरे पग को। 


प्रतिज्ञा पूरी होगी न तुम्हारी 

नर्क जाओगे ऐसी दशा में 

दान जिससे कुछ बचे ही नहीं 

विद्वान पुरुष प्रशंसा नहीं करते। 


जीवन निर्वाह ठीक चलता जिसका 

वही दान, यज्ञ, तप कर सकता 

पांच भागों में बांटे जो धन को 

लोक परलोक में सुख वो पाता। 


कुछ हिस्सा धर्म के लिए 

कुछ यश और कुछ भोगों के लिए 

कुछ स्वजनों के लिए भी 

कुछ धन की अविवृद्धि के लिए। 


असुरशिरोमणि, यदि तुम्हे है 

चिंता प्रतिज्ञा टूट जाने की 

श्रुतियों का आशय सुनाऊँ 

इस विषय में तुम्हे, ऋग वेद की। 


श्रुति कहती, किसी को कुछ देने की 

बात स्वीकार कर लेना सत्य है 

उसको अस्वीकार करना या 

उसको नकार जाना असत्य है। 


यह शरीर एक वृक्ष है 

सत्य फल फूल है इसका 

परन्तु यदि वृक्ष ही न रहे 

फल फूल कैसे रह सकता। 


संग्रह अपना बनाये रखना और 

वस्तु न देना दुसरे को 

शरीर रुपी वृक्ष का मूल ये 

चाहे ये असत्य भी हो। 


यह अस्वीकारात्मक असत्य ही 

सुरक्षित रखने वाला धन को है 

परन्तु सब समय ही ऐसा 

हमें नहीं करना चाहिए है। 


नहीं करते रहते हैं जो 

सबसे, सभी वस्तुओं के लिए 

उसकी अपकीर्ति हो जाती 

जीवित रहते भी मृतक समान वे। 


स्त्रिओं को प्रसन्न करते समय 

हास परिहास और विवाह में 

 कन्या आदि की प्रशंसा करते समय 

अपनी जीविका की रक्षा के लिए। 


प्राणसंकट उपस्थित होने पर 

गौ, ब्राह्मणों के हित के लिए ही 

तथा किसी को मृत्यु से बचाये 

निन्दनीय नहीं वो असत्य भाषण भी। 



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