STORYMIRROR

Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

Classics

श्रीमद्भागवत - ३२८: मार्कण्डेय जी को भगवान शंकर का। वरदान

श्रीमद्भागवत - ३२८: मार्कण्डेय जी को भगवान शंकर का। वरदान

5 mins
299

श्रीमद्भागवत - ३२८: मार्कण्डेय जी को भगवान शंकर का। वरदान 


सूत जी कहें, शौनकादि ऋषियों 

इस प्रकार मार्कण्डेय मुनि  ने 

अनुभव किया योगमाया वैभव का 

और फिर निश्चय किया उन्होंने ।


इस माया से मुक्त होने के लिए 

उपाय मायातीत भगवान की शरण ही 

और वे स्थित हो गये 

शरण में उन्हीं भगवान की ।


मन ही मन उन्होंने कहा 

प्रभों, आप की माया वास्तव में 

सत्य, - ज्ञान के समान प्रकाशित होती 

प्रतीतिमात्र होने पर भी ये ।


और बड़े बड़े विद्वान भी उसके 

खेलों से मोहित हो जाते 

सब प्रकार से अभयदान करते हैं 

शरणागत को, चरणकमल आपके ।


मैंने भी उन्हीं की शरण ग्रहण की 

सूत जी कहते हैं, ऐसे 

शरणागत की भावना से मार्कण्डेय जी 

भगवान में तन्मय हो रहे ।


उसी समय भगवान शंकर जी 

आकाश मार्ग से विचरण करते हुए 

नन्दी पर सवार होकर निकले थे 

माता पार्वती भी साथ में ।


जब माता पार्वती ने 

मार्कण्डेय मुनि को देखा 

कि ध्यान अवस्था में स्थित वो 

वात्सल्य स्नेह उमड़ आया उनका ।


शंकर जी से कहा उन्होंने 

भगवन देखिए इस ब्राह्मण को 

शरीर, इंद्रियाँ और अंतकरण इनका 

समुंदर की तरह शान्त वो ।


समस्त सिद्धियों के दाता आप हैं 

इसकी तपस्या का फल दीजिए इसको 

भगवान शंकर ने कहा, हे देवी 

किसी वस्तु की चाह ना इसको ।


और तो क्या इसके मन में कभी 

मोक्ष की भी आकांक्षा ना होती 

भगवान के चरणकमलों की 

परम् भक्ति इन्हें प्राप्त हो चुकी ।


यद्यपि उसकी इन्हें कोई आवश्यकता नहीं 

बातचीत करूँगा फिर भी इनसे मैं 

क्योंकि ये मार्कण्डेय मुनि 

एक संत महात्मा पुरुष हैं I 


सूत जी कहें, शौनक जी 

जितने भी संत हैं जगत के 

एकमात्र आश्रय और आदर्श 

शंकर जी ही हैं उनके ।


मार्कण्डेय मुनि के पास गये वे 

वो तो भगवान में तन्मय हो रहे 

शरीर, जगत का पता ना उन्हें 

वो उस समय ये भी ना जान सके ।


कि मेरे सामने सारे विश्व की 

आत्मा भगवान गौरी शंकर खड़े 

शंकर जी अपनी योग माया से 

मुनि के हृदय में प्रवेश कर गये ।


मार्कण्डेय मुनि ने देखा कि

दर्शन हो रहे शंकर के हृदय में 

  बिजली समान पीली जटाएँ सिर पर 

तीन नेत्र हैं, दस भुजाएँ ।


सूर्य के समान तेजस्वी 

शरीर पर बाघम्बर धारण किए 

हाथों में शूल, खट्वांग्,, रुद्राक्ष माला 

डमरू,  खप्पर,  धनुष लिए हुए ।


शंकर के दर्शन कर विस्मित हुए 

उन्होंने समाधि खोल दी अपनी 

देखा तो गणों के साथ में 

सामने शंकर और पार्वती ।


प्रणाम किया, पूजा की उनकी 

और फिर उनसे ये कहें कि

हे सर्वशक्तिमान प्रभु, मैं 

क्या करूँ सेवा आपकी ।


नमस्कार करूँ मैं आपके 

सत्वगुण से युक्त शांतस्वरूप  को 

रजोगुणयुक्त सर्वपरवर्तक को और 

तमोगुणयुक्त अघोर स्वरूप को ।


ऐसी स्तुति सुनकर शंकर जी 

मार्कण्डेय मुनि पर अत्यंत संतुष्ट हुए 

और तब प्रसन्नचित्त में 

हंसते हुए ये कहने लगे ।


“ मार्कण्डेय जी, ब्रह्म, विष्णु तथा मैं 

हम तीनों ही वारदाताओं के स्वामी 

दर्शन हमारा व्यर्थ नहीं जाता 

अमरत्व प्राप्त कर लेता मनुष्य भी ।


इसलिए तुम्हारी जो इच्छा हो 

तुम मुझसे वो वर माँग लो 

स्वभाव से ही परोपकारी और 

शांत चित्त होते हैं, ब्राह्मण जो ।


हमारे स्वरूपप्रेमी, भक्त होते वो 

लोकपाल, मैं, ब्रह्मा और विष्णु भी 

संलग्न रहते उनकी सेवा में 

और ऐसे शांत महापुरुष भी ।



 हममें, अपने में, लोगों में ना भेद करें 

सदा  सर्वदा एकरस रहते वो 

सर्वत्र और सर्वथा ही 

आत्मा का दर्शन करते वो ।


तुम्हारे जैसे महात्माओं की 

इसलिए हम स्तुति, सेवा करते 

स्वयं  बड़े तीर्थ और देवता 

संत ही हैं तुम्हारे जैसे ।


क्योंकि तीर्थ और मूर्तिमान देवता तो 

बहुत दिनों में पवित्र करते 

परंतु तुम लोग दर्शन मात्र से ही 

लोगों को पवित्र कर देते ।


बड़े बड़े पापी शुद्ध हो गए 

  सम्भाषण , सहवास  से तुम लोगों के 

शंकर की बातें सम्पूर्ण थीं 

धर्म के गुप्ततम रहस्य से ।


उनकी एक एक अक्षर में 

अमृत का समुंदर भरा हुआ 

पूरी तन्मयता के साथ में 

मार्कण्डेय मुनि ने उसे सुना ।


अमृतपान करते रहे वे 

परंतु उन्हें तृप्ति नहीं हुई 

चिरकाल तक माया में भटक चुके थे 

और वे बहुत थके हुए भी ।


  शिव वाणी का अमृतपान करने से 

सारे कलेश नष्ट हो गए उनके 

तब भगवान शिव शंकर से 

इस प्रकार कहा था उन्होंने ।


सर्वशक्तिमान की यह लीला 

सभी प्राणियों की समझ से परे 

देखो तो जगत के स्वामी होकर भी 

मेरे जैसों की स्तुति करते वे ।


   अद्वितय ब्रह्मस्वरूप आप हैं 

समस्त ज्ञान के मूल आप ही 

नमस्कार करता मैं आपको 

आप के दर्शन से बढ़कर क्या कोई ।


ऐसी वस्तु   है  जिसे मैं 

माँगूँ वरदान के रूप में 

स्वयं तो पूर्ण हैं आप, भक्तों की 

समस्त कामनाओं को भी पूर्ण करते ।


आपका दर्शन करके  भी इसीलिए 

एक वर मैं और माँगता 

  भगवान, उनके भक्त  में और आपमें 

अविचल भक्ति रहे सदा सर्वदा ।


समधुर वाणी सुनकर मुनि की 

शंकर जी ने कहा था उनसे 

महर्षि, वरदान दूँ मैं कि तुम्हारी 

पूर्ण हों सभी कामनायें ।


परमात्मा में सदा सर्वदा 

तुम्हारी अनन्य भक्ति बनी रहे 

अजर और अमर हो जाओ तुम 

कल्प प्रयंत तुम्हारा पवित्र यश फैले ।


सर्वदा अक्षुण्य रहे ब्रह्मतेज और 

तुम्हें भूत, भविष्य और वर्तमान के 

समस्त विशेष ज्ञानों का एक 

   अधिष्ठान रूप ज्ञान प्राप्त हो जाए ।


सूत जी कहते हैं शौनक जी 

वर देकर मार्कण्डेय मुनि को 

पार्वती से वार्तालाप    करते हुए 

तब वहाँ से चले गए वो ।


भृगुवंश शिरोमणि मार्कण्डेय मुनि जी 

महायोग का परम् फल मिला उन्हें 

   भगवान के अनन्य प्रेमी हो गए वो 

  भक्ति भाव से  हो पृथ्वी पर विचरण करते ।


शौनक जी, मार्कण्डेय मुनि का 

सृष्टि प्रलय का अनुभव  जो किया 

यह भगवान की माया का वैभव 

तात्कालिक और बस    उन्हीं के लिए था ।


 सर्व साधारण के लिए ये नहीं 

इसलिए संदेह ना करना चाहिए कि 

कि हमारे ये पूर्वज तो  इसी कल्प से 

फिर आयु इतनी लंबी कैसे हो गई ।


क्योंकि कोई कोई  इस माया की 

रचना ना जानकर , आदि काल में 

 बार बार होने वाली  सृष्टि प्रलय 

  इसको भी बतलाते हैं वे ।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Classics