श्रीमद्भागवत - ३२८: मार्कण्डेय जी को भगवान शंकर का। वरदान
श्रीमद्भागवत - ३२८: मार्कण्डेय जी को भगवान शंकर का। वरदान


श्रीमद्भागवत - ३२८: मार्कण्डेय जी को भगवान शंकर का। वरदान
सूत जी कहें, शौनकादि ऋषियों
इस प्रकार मार्कण्डेय मुनि ने
अनुभव किया योगमाया वैभव का
और फिर निश्चय किया उन्होंने ।
इस माया से मुक्त होने के लिए
उपाय मायातीत भगवान की शरण ही
और वे स्थित हो गये
शरण में उन्हीं भगवान की ।
मन ही मन उन्होंने कहा
प्रभों, आप की माया वास्तव में
सत्य, - ज्ञान के समान प्रकाशित होती
प्रतीतिमात्र होने पर भी ये ।
और बड़े बड़े विद्वान भी उसके
खेलों से मोहित हो जाते
सब प्रकार से अभयदान करते हैं
शरणागत को, चरणकमल आपके ।
मैंने भी उन्हीं की शरण ग्रहण की
सूत जी कहते हैं, ऐसे
शरणागत की भावना से मार्कण्डेय जी
भगवान में तन्मय हो रहे ।
उसी समय भगवान शंकर जी
आकाश मार्ग से विचरण करते हुए
नन्दी पर सवार होकर निकले थे
माता पार्वती भी साथ में ।
जब माता पार्वती ने
मार्कण्डेय मुनि को देखा
कि ध्यान अवस्था में स्थित वो
वात्सल्य स्नेह उमड़ आया उनका ।
शंकर जी से कहा उन्होंने
भगवन देखिए इस ब्राह्मण को
शरीर, इंद्रियाँ और अंतकरण इनका
समुंदर की तरह शान्त वो ।
समस्त सिद्धियों के दाता आप हैं
इसकी तपस्या का फल दीजिए इसको
भगवान शंकर ने कहा, हे देवी
किसी वस्तु की चाह ना इसको ।
और तो क्या इसके मन में कभी
मोक्ष की भी आकांक्षा ना होती
भगवान के चरणकमलों की
परम् भक्ति इन्हें प्राप्त हो चुकी ।
यद्यपि उसकी इन्हें कोई आवश्यकता नहीं
बातचीत करूँगा फिर भी इनसे मैं
क्योंकि ये मार्कण्डेय मुनि
एक संत महात्मा पुरुष हैं I
सूत जी कहें, शौनक जी
जितने भी संत हैं जगत के
एकमात्र आश्रय और आदर्श
शंकर जी ही हैं उनके ।
मार्कण्डेय मुनि के पास गये वे
वो तो भगवान में तन्मय हो रहे
शरीर, जगत का पता ना उन्हें
वो उस समय ये भी ना जान सके ।
कि मेरे सामने सारे विश्व की
आत्मा भगवान गौरी शंकर खड़े
शंकर जी अपनी योग माया से
मुनि के हृदय में प्रवेश कर गये ।
मार्कण्डेय मुनि ने देखा कि
दर्शन हो रहे शंकर के हृदय में
बिजली समान पीली जटाएँ सिर पर
तीन नेत्र हैं, दस भुजाएँ ।
सूर्य के समान तेजस्वी
शरीर पर बाघम्बर धारण किए
हाथों में शूल, खट्वांग्,, रुद्राक्ष माला
डमरू, खप्पर, धनुष लिए हुए ।
शंकर के दर्शन कर विस्मित हुए
उन्होंने समाधि खोल दी अपनी
देखा तो गणों के साथ में
सामने शंकर और पार्वती ।
प्रणाम किया, पूजा की उनकी
और फिर उनसे ये कहें कि
हे सर्वशक्तिमान प्रभु, मैं
क्या करूँ सेवा आपकी ।
नमस्कार करूँ मैं आपके
सत्वगुण से युक्त शांतस्वरूप को
रजोगुणयुक्त सर्वपरवर्तक को और
तमोगुणयुक्त अघोर स्वरूप को ।
ऐसी स्तुति सुनकर शंकर जी
मार्कण्डेय मुनि पर अत्यंत संतुष्ट हुए
और तब प्रसन्नचित्त में
हंसते हुए ये कहने लगे ।
“ मार्कण्डेय जी, ब्रह्म, विष्णु तथा मैं
हम तीनों ही वारदाताओं के स्वामी
दर्शन हमारा व्यर्थ नहीं जाता
अमरत्व प्राप्त कर लेता मनुष्य भी ।
इसलिए तुम्हारी जो इच्छा हो
तुम मुझसे वो वर माँग लो
स्वभाव से ही परोपकारी और
शांत चित्त होते हैं, ब्राह्मण जो ।
हमारे स्वरूपप्रेमी, भक्त होते वो
लोकपाल, मैं, ब्रह्मा और विष्णु भी
संलग्न रहते उनकी सेवा में
और ऐसे शांत महापुरुष भी ।
हममें, अपने में, लोगों में ना भेद करें
सदा सर्वदा एकरस रहते वो
सर्वत्र और सर्वथा ही
आत्मा का दर्शन करते वो ।
तुम्हारे जैसे महात्माओं की
इसलिए हम स्तुति, सेवा करते
स्वयं बड़े तीर्थ और देवता
संत ही हैं तुम्हारे जैसे ।
क्योंकि तीर्थ और मूर्तिमान देवता तो
बहुत दिनों में पवित्र करते
परंतु तुम लोग दर्शन मात्र से ही
लोगों को पवित्र कर देते ।
बड़े बड़े पापी शुद्ध हो गए
सम्भाषण , सहवास से तुम लोगों के
शंकर की बातें सम्पूर्ण थीं
धर्म के गुप्ततम रहस्य से ।
उनकी एक एक अक्षर में
अमृत का समुंदर भरा हुआ
पूरी तन्मयता के साथ में
मार्कण्डेय मुनि ने उसे सुना ।
अमृतपान करते रहे वे
परंतु उन्हें तृप्ति नहीं हुई
चिरकाल तक माया में भटक चुके थे
और वे बहुत थके हुए भी ।
शिव वाणी का अमृतपान करने से
सारे कलेश नष्ट हो गए उनके
तब भगवान शिव शंकर से
इस प्रकार कहा था उन्होंने ।
सर्वशक्तिमान की यह लीला
सभी प्राणियों की समझ से परे
देखो तो जगत के स्वामी होकर भी
मेरे जैसों की स्तुति करते वे ।
अद्वितय ब्रह्मस्वरूप आप हैं
समस्त ज्ञान के मूल आप ही
नमस्कार करता मैं आपको
आप के दर्शन से बढ़कर क्या कोई ।
ऐसी वस्तु है जिसे मैं
माँगूँ वरदान के रूप में
स्वयं तो पूर्ण हैं आप, भक्तों की
समस्त कामनाओं को भी पूर्ण करते ।
आपका दर्शन करके भी इसीलिए
एक वर मैं और माँगता
भगवान, उनके भक्त में और आपमें
अविचल भक्ति रहे सदा सर्वदा ।
समधुर वाणी सुनकर मुनि की
शंकर जी ने कहा था उनसे
महर्षि, वरदान दूँ मैं कि तुम्हारी
पूर्ण हों सभी कामनायें ।
परमात्मा में सदा सर्वदा
तुम्हारी अनन्य भक्ति बनी रहे
अजर और अमर हो जाओ तुम
कल्प प्रयंत तुम्हारा पवित्र यश फैले ।
सर्वदा अक्षुण्य रहे ब्रह्मतेज और
तुम्हें भूत, भविष्य और वर्तमान के
समस्त विशेष ज्ञानों का एक
अधिष्ठान रूप ज्ञान प्राप्त हो जाए ।
सूत जी कहते हैं शौनक जी
वर देकर मार्कण्डेय मुनि को
पार्वती से वार्तालाप करते हुए
तब वहाँ से चले गए वो ।
भृगुवंश शिरोमणि मार्कण्डेय मुनि जी
महायोग का परम् फल मिला उन्हें
भगवान के अनन्य प्रेमी हो गए वो
भक्ति भाव से हो पृथ्वी पर विचरण करते ।
शौनक जी, मार्कण्डेय मुनि का
सृष्टि प्रलय का अनुभव जो किया
यह भगवान की माया का वैभव
तात्कालिक और बस उन्हीं के लिए था ।
सर्व साधारण के लिए ये नहीं
इसलिए संदेह ना करना चाहिए कि
कि हमारे ये पूर्वज तो इसी कल्प से
फिर आयु इतनी लंबी कैसे हो गई ।
क्योंकि कोई कोई इस माया की
रचना ना जानकर , आदि काल में
बार बार होने वाली सृष्टि प्रलय
इसको भी बतलाते हैं वे ।