श्रीमद्भागवत -३२६: मार्कण्डेय जी की तपस्या और वर प्राप्ति
श्रीमद्भागवत -३२६: मार्कण्डेय जी की तपस्या और वर प्राप्ति


श्रीमद्भागवत -३२६; मार्कंडेय जी की तपस्या और वर प्राप्ति
शौनक जी कहते हैं सूत जी
शिरमोर आप वक्ताओं के
अंधकार में पड़े हुए लोगों को
परमात्मा का साक्षात्कार करा देते ।
आप कृपा करके हमारे
एक प्रश्न का उत्तर दीजिए
कि मार्कण्डेय ऋषि तो चिरायु हैं
पुत्र वे मृक्ण्ड ऋषि के ।
जिस समय प्रलय ने निगला जगत को
उस समय भी वे बचे रहे थे
परंतु वे तो हमारे ही वंश में
इसी कल्प में उत्पन्न हुए थे ।
वे एक श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं
और जहां तक मालूम है हमें
कोई प्रलय नहीं हुआ है
प्राणियों का अबताक इस कल्प में ।
ये बात कैसे सत्य तब
कि प्रलयक़ालीन समुंदर में
सारी पृथ्वी डूब गई थी
मार्कण्डेय जी भी डूब रहे उसमें ।
और उन्होंने अक्षयवट के पत्ते के
दोने में बालमुकन्द का दर्शन किया
इससे संदेह है हमें और
इसे जानने की हमें बड़ी उत्कण्ठा ।
आप बड़े योगी हैं और
सम्मानित हो पोराणिकों में
कृपा करके भगवन आप अब
हमारा ये संदेह मिटाइये ।
सूत जी कहें, शौनकादि ऋषियों
मार्कण्डेय जी संपन्न हो गये थे
तपस्या और स्वाध्याय से
वेदों का अध्ययन करके वे ।
आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत ले रखा
शान्तभाव में सदा रहते थे वे
सिर पर जटाएँ बढ़ा लीं
वृक्षों की खाल का वस्त्र पहनते ।
हाथ में कमंडल धारण करते
शरीर पर यज्ञोपवीत, मेखला उनके
मृगचर्म, रुद्राक्ष की माला
उनकी पूँजी थी सब बस ये ।
आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की पूर्ति के लिए
ये सब ग्रहण किया था उन्होंने
साँयकाल और प्रातकाल में
भगवान की आराधना करते थे ।
भिक्षा लाकर, गुरुदेव के
चरणों में निवेदन कर देते
गुरु जी की आज्ञा होती
तो एक बार दिन में खा लेते ।
खाने को ना भी मिलता तो
उपवास कर लेते थे वो
ऐसी तपस्या, सावध्याय करते हुए
बीत गए वर्ष करोड़ों ।
ऐसा करके मार्कण्डेय जी ने
मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली
जिसको जीतना कठिन है
बड़े बड़े योगियों के लिए भी ।
ब्रह्मा, भृगु, शंकर, दक्ष और
मनुष्य, देवता विस्मित ये देखकर
कि योगी मार्कण्डेय जी ने
विजय प्राप्त कर ली मृत्यु पर ।
महायोग के साथ मार्कण्डेय जी ने
चित जोड़ा भगवान के स्वरूप में
और इस तरह करते करते
छ मन्वन्तर व्यतीत हो गए ।
सातवें मन्वन्तर में जब
इस बात का पता चला इंद्र को
तब वे भयभीत हो गए
उनकी तपस्या से शंकित हो ।
विघ्न डालना आरंभ कर दिया
इंद्र ने उनकी तपस्या में
गंधर्व, अप्सरा, काम वसंत को
भेजा उन्होंने आश्रम पर उनके ।
मार्कण्डेय जी का ये आश्रम
हिमालय के उत्तर की और ये
पुष्पभद्रा नाम की नदी बहती वहाँ
चित्रा नाम की शिला पास में उसके ।
बड़ा ही पवित्र ये आश्रम
पुण्यात्मा ऋषि निवास करते वहाँ
पवित्र और निर्मल जल से भरे हुए
बहुत से जलाशय जहां तहाँ ।
पक्षियों के झुण्ड खेलते रहते
और उस पवित्र आश्रम में
वायु ने प्रवेश किया था
वहाँ भेजा जिसे इंद्र ने ।
कामभाव को उत्तेजित करते हुए
वो बहने लगी धीरे धीरे
वसंत ने भी माया फैलाई
प्यारे सखा जो कामदेव के ।
संध्या का समय वहाँ तब
चंद्रमा विस्तार कर रहे किरणों का
वसंत का साम्राज्य देखकर
कामदेव ने भी वहाँ प्रवेश किया ।
साथ में गंधर्व, अप्सरा भी
अकेले काम नायक थे उनके
पुष्पों का धनुष हाथ में उनके
उसपर सम्मोहन वाण चढ़े हुए ।
उस समय मार्कण्डेय मुनि वहाँ
भगवान की कर रहे तपस्या
बड़े ही तेजस्वी मार्कण्डेय मुनि
मानो अग्निदेव मूर्तिमान बैठे वहाँ ।
अप्सराएँ नाचने लगीं और
गंधर्व मधुर गान करने लगे
पंचमुख बाण चढ़ाया
धनुष पर तब कामदेव ने ।
शोष्ण, दीपन,सम्मोहन, तापन, उन्मादन
पाँच मुख उनके इस वाण के
वसंत भी प्रयत्नशील वहाँ
मुनि मन विचलित करने के लिए ।
पूजिक्स्थली नाम की अप्सरा
गेंद खेल रही उनके सामने
कामदेव ने उचित अवसर देख
वाण छोड़ा ऊपर उनके ।
सोचें कि जीत लिया मुनि को
परंतु सब उद्योग निष्फल हुआ उनका
अपरिमत तपस्वी मार्कण्डेय जी
जादू ना चला वसन्त और काम का ।
तपस्या से भ्रष्ट करने को आए वे
स्वयं उनके तेज से जलने लगे
भाग खड़े हुए वहाँ से वे सब
और मार्कण्डेय जी के मन में ।
तनिक भी अहंकार ना हुआ इसका
कि वे सब उनको विचलित ना कर सके
इंद्र ने भी जब ये देखा कि
निस्तेज, हतप्रभ लौट रहे सब वे ।
और साथ में ये सुना कि
परम्प्रभावशाली हैं मार्कण्डेय जी
और बड़ा आश्चर्य भी हुआ कि
कामदेव की सेना हार गई ।
शौनक जी, मार्कण्डेय मुनि का
चित भगवान में लगा हुआ
कृपा प्रसाद देने को उनके
प्रकट हुए नर, नारायण वहाँ ।
शरीर गौरवर्ण एक का
दूसरे का शरीर श्याम था
एक मृगचर्म पहने हुए
दूसरे ने वृक्ष की छाल को ओढ़ा I
दोनों की थीं चार भुजाएँ
कमण्डलु, दण्ड धारण किए हुए
नर नारायण कुछ ऊँचे क़द के और
वेद धारण किए हुए थे ।
ऐसा मालूम होता था कि
मूर्तिमान वहाँ स्वयं तप ही
उन्हें देखकर मार्कण्डेय मुनि
उठकर खड़े हो गए वहीं ।
दण्डवत होकर शाष्टांग प्रणाम किया
उनका शरीर पुलकित हो गया
हाथ जोड़ कर खड़े हो गए
उनसे कुछ बोला ना गया ।
गदगद वाणी में तब बस
नमस्कार, नमस्कार कह सके
दोनों को आसन दिया और
पाँव पखारे, पूजा की उन्होंने ।
स्तुति कर कहा “ हे भगवन
मैं तो एक अल्पज्ञ जीव हूँ
आप की अनन्त महिमा का
मैं तो कैसे वर्णन करूँ ।
विश्व की रक्षा को आपने
मत्सय, कूर्म आदि अवतार धारण किए
ये दोनों रूप भी आपके
त्रिलोकी के कल्याण के लिए ।
पालन और नियमन चराचर का
आप ही हो करने वाले
चरणकमलों में प्रणाम करूँ मैं
आप परम्सुहृद जीवों के ।
सत्य, रज,तम ये तीन गुण
यद्यपि मूर्ति हैं आपकी ही
शान्ति प्रदान करती जीवों को
फिर भी आपकी सत्वगुण मूर्ति ही ।
जीवों को शान्ति नहीं मिल सकती
रजोगुणी और तमोगुणी मूर्तियों से
दुख, मोह, शोक और भय की
वृद्धि ही होती है उनसे ।
इसलिए बुद्धिमान उपासना करते
आपकी और आपके भक्तों की
परम् प्रिय एवं शुद्ध मूर्ति
नर और नारायण की ही ।
विशुद्ध तत्व को ही वे
आपका श्री विग्रह मानते
वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है
उसी की उपासना से उन्हें ।
वे नहीं स्वीकार करते हैं
आपकी मूर्ति रजोगुणी, तमोगुणी जो
नमस्कार करता हूँ मैं
आपके स्वरूप इस नर नारायण को ।
विद्यामान रहते आप हैं
सभी प्राणियों के हृदय में
तो भी इतनी मोहित हो जाती
जिनकी बुद्धि आप की माया से ।
कि वह फँसकर निष्फल और
झूठी इंद्रियों के जाल में
आपकी झांकी से वंचित हो जाते
किन्तु आप तो गुरु इस जगत के ।
इसलिए पहले अज्ञानी होने पर भी
जब आपकी कृपा से उन्हें
आपके ज्ञान भंडार वेदों की
प्राप्ति होती है तब वे ।
आपके साक्षात दर्शन कर लेता
क्योंकि प्रभो, इन वेदों में
आपका साक्षातकार कराने वाला
ज्ञान विद्यामान पूर्ण रूप से ।
आपके स्वरूप का रहस्य प्रकट करे वो
ब्रह्मा आदि बड़े बड़े मनीषी उसे
प्राप्त करने का यत्न करने पर भी
मोह में पड़ जाते हैं वे ।
आप भी ऐसे लीला विहारी हैं कि
विभिन्न मतवाले आपके संबंध में
जैसा सोचते विचारते हैं
उसी रूप में प्रकट हो जाते ।
वास्तव में तो आप देह आदि
समस्त उपाधियों में छिपकर ही
विशुद्ध विज्ञानधन ही हैं और
मैं वंदना करता हूँ आपकी ।