श्रीमद्भागवत -८४ ; पुरंजन को स्त्रीयोनि की प्राप्ति और अविज्ञात के उपदेश
श्रीमद्भागवत -८४ ; पुरंजन को स्त्रीयोनि की प्राप्ति और अविज्ञात के उपदेश
नारद जी कहें, हे राजन
यवनराज की आज्ञा लेकर
सेना ले कालकन्या और प्रज्वार
सर्वत्र विचरें सारी पृथ्वी पर।
एक बार उन्होंने देखा
संपन्न पुरंजनपुरी एक सुंदर
बूढा सांप एक रक्षा कर रहा
आक्रमण कर दिया उस पुरी के ऊपर।
कालकन्या भोगे प्रजा को
और भोगी जाती पुरी का
यवन अनेकों द्वारों से घुसकर
विध्वंश करने लगे वो उसका।
राजा पुरंजन को भी वहां पर
सताने लगे कई कलेश थे
कालकन्या के आलिंगन से
बहुत हीन वो हो गए थे।
विवेक शक्ति थी नष्ट हो गयी
ऐश्वर्य सब लुट चूका था
गंधर्वों और यवनों द्वारा
सारा नगर भ्रष्ट हुआ था।
पुत्र, पौत्र प्रतिकूल हो गए
अनादर उसका वो कर रहे
स्नेहशून्य स्त्री हो गयी
देह कालकन्या के वश में।
देश शत्रु के हाथ में पड़कर
है सारा भ्रष्ट हो रहा
चिंता कर कर पुरंजन व्याकुल हुआ
छुटकारा इससे कुछ न दिख रहा।
तब सोचे नगर को छोड़ दूँ
पर घेर लिया यवनों ने उसको
कालकन्या ने उसे पकड़ लिया
यवनों ने आग लगाई पुरी को।
सारा नगर जलता देखकर
पुरंजन को बड़ा दुःख हुआ था
सर्प को भी पीड़ा बहुत हुई
यवनों ने उसे भी कष्ट दिया था।
सर्प की शक्ति नष्ट हो गयी
दुखी होकर रोने लगा वो
देह गेह आदि में आसक्त पुरंजन
उनके बारे में ही सोचे वो।
चिंता कर पुत्र पुत्रिओं की
सोचे मेरी भार्या कैसे रहे
मेरे जाने के बाद क्या होगा
उसी की वो चिंता करता रहे।
यवनराज के भाई ने आकर
पशु समान बांधा था उसको
साथ में भार्या और अनुचर उसके
छिन्न भिन्न कर दिया नगर को।
राजा पुरंजन को अज्ञानवश
तब भी नहीं स्मरण आया था
अपने हितेषी और घनिष्ठ
पुराने मित्र अविज्ञात का।
जिन पशुओं की बलि दी थी उसने
वो लगे कुठारों से काटने
वर्षों तक विवेकहीन पड़ा
कष्ट भोगे वो अन्धकार में।
स्त्री की आसक्ति से ही
ये दुर्गति हुई थी उसकी
अंत समय जब उसका आया
तब भी स्त्री की ही चिंता थी।
इसीलिए अगले जन्म में
कन्या होकर पैदा हुआ वो
विदर्भराज की बेटी बना
सुँदर और सुशील बड़ा वो।
विदर्भनंदिनी जब विवाह योग्य हुई
विदर्भराज ने घोषित किया ये
कि जो पराकर्मी होगा वही
वीर पुरुष विवाह सकेगा उससे।
पाण्ड्यनरेश महाराज मलयध्वज ने
उसके साथ था विवाह किया
समरभूमि में समस्त राजाओं
को जीतकर उसे वर लिया।
उनसे श्यामलोचन एक कन्या
और सात पुत्र उत्पन्न किये
जिन्होंने आगे जाकर राज्य किया
द्रविड़ देश के वो सात राजा हुए।
मलयध्वज की पहली पुत्री
बड़ी ही व्रतशीला थी वो
अगस्त मुनि से विवाह हुआ उसका
दृढ़च्युत नाम का पुत्र हुआ उसको।
अंत में राजर्षि मलयध्वज ने
पृथ्वी को बाँट दिया पुत्रों में
वो तब मलयपर्वत चले गए
भगवान कृष्ण की आराधना करने।
विदर्भी भी घर और पुत्रों को
तिलांजलि दे उनके संग गयी
दोनों ने वहां कठिन तप किया
सुध न थी उन्हें अपने शरीर की।
मलयध्वज ने याम नियमादि से
इन्द्रियद्वार को वश में करके
मन को स्थिर कर, सौ वर्ष तक
एक स्थान पर वो बैठे रहे।
पतिपरायण वैदर्भी इस समय
सब तरह के भोग त्याग कर
पति के चरणों में ही रहती
प्रसन्न थी वो पति की सेवा कर \
महाराज ने शरीर त्याग दिया
तब अपना योगसाधना कर
तब भी वैदर्भी उनकी सेवा करे
ये रहस्य को न जानकर।
पति ने शरीर त्याग दिया है
उन्हें ये पता चला जब
अत्यंत व्याकुल हो गयीं थीं
वहीँ पर वो रोने लगीं तब।
लकड़ियों की चिता बनाकर
पति का शव रखा था उसपर
सोचें प्राण त्यागूँ अब मैं भी
सती हो जाऊं, ये निश्चय कर।
इतने में उसका एक मित्र
आत्मज्ञानी ब्राह्मण वहां आया
उसको रोती हुई देखकर
समझाते हुए था उसने कहा।
ब्राह्मण कहे, देवी तू कौन है ?
किसकी पुत्री ?, शौक क्यों कर रही ?
सोया हुआ ये पुरुष कौन है ?
क्या तू मुझे है नहीं जानती ?।
जिसके संग पहले विचरा करता था
मैं वही तेरा मित्र हूँ
तुम्हे अब मेरी याद नहीं है
तुम्हारा सखा मैं अविज्ञात हूँ।
निवास स्थान की खोज में गए
तुम पृथ्वी के भोग भोगने
पहले हम दोनों मित्र ही
मानस निवास में दो हंस थे।
हम दोनों सहस्त्रो वर्ष तक
निवासस्थान के बिना ही रहे
किन्तु विषयभोगों की खातिर
मुझे छोड़कर तुम चले गए।
पृथ्वी पर फिर तुम आ गए
घूमते हुए एक स्थान था देखा
एक स्त्री का रचा हुआ वो
वो स्थान रमणीय बड़ा था।
पांच बगीचे, नौ दरवाजे
द्वारपाल एक, तीन परकोटे
छः वैश्यकुल थे उसमें
पांच बाजार भी उसमें थे।
पांच उपादान कारणों से बना
स्वामिनी उसकी एक स्त्री थी
नारद जी कहें हे राजन
माया सब ये थी हरि की।
इन्द्रियों के पांच विषय जो
वो उसके थे पांच बगीचे
नौ इन्द्रियां छिद्र, द्वार थे
तेज, जल, अन्न, तीन परकोटे।
मन और पांच ज्ञान्द्रियां जो
वो उसके छः वैश्यकुल थे
क्रिया का स्वरुप कर्मेन्द्रियाँ
ही पांच बाजार थे उसके।
उपादान कारण थे उसके
जो होते हैं पांच भूत ये
स्वामिनी जो उसकी स्त्री थी
वो बुद्धि शक्ति अपनी ये।
प्रवेश करने पर उस नगर में
पुरुष है ज्ञान शून्य हो जाता
स्वामिनी के फंदे में पड़कर
स्वरुप को अपने भूल है जाता।
उसके साथ विहार करते हुए
तुम भी भूले स्वरुप को अपने
तुम्हारी जो ये दुर्दशा हुई
ये की है उसी के संग ने।
न तुम विदर्भराज की पुत्री
न मल्यध्वज तुम्हारा पति है
न द्वारों में बंद किया जिसने
वो पुरंजनी तुम्हारी पत्नी है।
पहले अपने को पुरुष समझते
अब सती स्त्री मानते हो
मेरी फैलाई हुई माया सब
पुरुष न तुम और न स्त्री हो \
हम दोनों तो वही हंस हैं
अनुभव करो वास्तविक स्वरुप को
मित्र, मैं तो तुम्हारा ईश्वर हूँ
और तुम बस एक जीव हो।
तुम मुझसे कोई भिन्न नहीं हो
नहीं भिन्न हूँ मैं भी तुमसे
योगी पुरुष हम दोनों में
थोड़ा सा भी अंतर न मानते।
इस प्रकार ईश्वर ने उपदेश से
उस जीव को आत्मज्ञान दिया है
परोक्ष रूप ये आत्मज्ञान ही
जगदीश्वर को बहुत प्रिय है।