STORYMIRROR

Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

Classics

श्रीमद्भागवत -३०२ः भिन्न भिन्न सिद्धियों के नाम और लक्षण

श्रीमद्भागवत -३०२ः भिन्न भिन्न सिद्धियों के नाम और लक्षण

5 mins
348


श्री कृष्ण कहते हैं, उद्धव

साधक जब इंद्रियाँ, प्राण और मन को

अपने वश में करके अपना चित

मुझमें लगा देता है वो।


मेरी आराधना करने लगता है

तब सिद्धियाँ उपस्थित हों उसके सामने

उद्धव जी ने पूछा, हे अच्युत

कौन सी धारणा करने से।


किस प्रकार और कौन सी सिद्धि

प्राप्त होती उस साधक को

और उनकी संख्या कितनी है

सिद्धियाँ देने वाले तो आप हो।


भगवान श्री कृष्ण कहें, उद्धव

धारणायोग के पारगामी योगियों ने

जो अठारह प्रकार की सिद्धियाँ बतलायीं

उनमें से आठ रहतीं हैं मुझमें।


तीन सिद्धियाँ इनमें से शरीर की

अणिमा, महिमा और लघिमा

इंद्रियों की एक सिद्धि है

प्राप्ति नाम है उसका।


लोकिक, पारलोकिक पदार्थों का

इच्छानुसार अनुमान करने वाली

प्रकामया इस सिद्धि का नाम है

और एक सिद्धि ईशिता नाम की।


जो इच्छानुसार संचालित करती

माया और उसके कार्यों को

विषयों में रहकर भी उनमें

आसक्त ना होना, “ विशिता “कहते उसको।


और जिस जिस सुख की

कामना करे, सीमा तक उसकी

चला जाना कामावसायिता है

और ये है सिद्धि आठवीं।


आठों सिद्धियाँ ये मुझमें ही रहतीं

और जिनको ये मैं देता

उन्हीं को ये अंशतः प्राप्त होतीं

इनके अतिरिक्त नही कोई सिद्धियाँ।


शरीर में भूख, प्यास ना होना

बहुत दूर की वस्तु को देखना

सुन लेना बात बहुत दूर की

और मन के साथ ही शरीर का।


पहुँच जाना उस स्थान पर

जो इच्छा हो वही रूप बना लेना

प्रवेश करना दूसरे शरीर में

जब इच्छा हो तब शरीर छोड़ना।


अप्सराओं की देवक्रीड़ा का दर्शन

और सिद्धि जो संकल्प की 

सब जगह मन के द्वारा

आज्ञापालन बिना नचु नचके


ये दस सिद्धियाँ सत्वगुण के

विशेष विकार से हैं होतीं

पाँच सिद्धियाँ और भी हैं

योगियों को जो प्राप्त होतीं।


भूत, भविष्य, वर्तमान की

बात जान लेना सिद्धि ये

शीत-उषण , सुख - दुःख, राग - द्वेष

वश में ना होना इन द्वन्द्वों के।


सिद्धि जिससे बात जानते

दूसरों के मन आदि की

शक्ति को स्तंभित कर देना

अग्नि, सूर्य, जल, विष आदि की।


और इनमें पाँचवीं सिद्धि है।

किसी से भी पराजित ना होना

उद्धव, योग धारण करने से

प्राप्त होतीं ये सब सिद्धियाँ।


किस धारणा से कौन सी सिद्धि

प्राप्त होती अब ये सुनो

पंच भूतों की सूक्षमतम मात्राएं

मेरा ही शरीर है जानो।


जो साधक उपासना करता

केवल मेरे उस शरीर का

और चिंतन नही करता इसके

अतिरिक्त किसी भी वस्तु का।


अणिमा नाम की सिद्धि प्राप्त हो उसे

अर्थात् पत्थर की चट्टान आदि में

प्रवेश करने की शक्ति भी

प्राप्त हो जाती है उसे।


मैं ही प्रकाशित हो रहा हूँ

महतत्व के रूप में

अपने मन को तन्मय कर देता

जो मेरे उस रूप में।


महिमा सिद्धि प्राप्त होती उसे

और आकाश आदि पंचभूतों में

अलग अलग मन को लगाते 

उन उनकी महत्ता प्राप्त हो उन्हें।


वायु आदि चार भूतों के

परमाणुओं को समझकर रूप मेरा

चित को तदाकार कर लेता

वो योगी लघिमा सिद्धि पाता।


परमाणु स्वरूप काल के समान

सूक्ष्म वस्तु बन सकता वो

मेरे सात्विक अहंकार रूप को 

चित में धारण करता है जो।


अधिष्ठाता हो जाता है

समस्त इंद्रियों का वो तो

सिद्धि प्राप्त कर लेता है

इस प्रकार प्राप्ति नाम की वो।


महत्वभिमानी सूत्रात्मा मुझ में

चित स्थिर करता अपना जो

प्रकामय नाम की सिद्धि प्राप्त होती

इच्छानुसार भोग जिससे प्राप्त हो।


त्रिगुणमयी माया के स्वामी

मेरे कालस्वरूप रूप की धारण करते जो

शरीरों और जीवों को इच्छानुसार

प्रेरित करने की समर्थ मिले उनको।


इशित्व सिद्धि इसका नाम है

और नारयाणस्वरूप में योगी जो

जिसे तृतीय और भगवान कहते

उसमें लगा ले अपने मन को।


मेरे स्वाभाविक गुण प्रकट हों उसमें

वशिता ना

म की सिद्धि प्राप्त हो

कामावश्यिता सिद्धि प्राप्त होती

ब्रह्मस्वरूप में स्थिर करे जो मन को।


परमानन्दसवरूपणी सिद्धि ये

सभी कामनाएँ इससे पूर्ण हों

और उद्धव मेरा वह रूप

श्वेतद्वीप का स्वामी है जो।


अत्यंत शुद्ध, धर्ममय ये रूप मेरा

उसको है जो धारणा करता

भूख - प्यास, जन्म - मृत्यु, शोक - मोह

इन छ उर्मियों से मुक्त हो जाता।


मैं ही प्राणस्वरूप आकाशआत्मा हूँ

चिंतन करते जो इस स्वरूप का

दूरश्रवण नाम की सिद्धि से

वो सम्पन्न है हो जाता।


आकाश में उपलब्ध होने वाली

विविध प्रणीयों की सुन सकता बोली वो

और जो योगी नेत्रों को सूर्य में

और संयुक्त करे नेत्रों में सूर्य को।


और दोनों के संयोग से

मन ही मन मेरा ध्यान करे

उसकी दृष्टि सूक्ष्म हो जाती

दूरदर्शन नाम की सिद्धि मिलती उसे।


और वह देख सकता है

सारे संसार को अपने नेत्रों से

मन और शरीर को प्राणवायु सहित

मेरे साथ संयुक्त वो कर दे।


और फिर मेरी धारणा करे

उसे मनोत्व सिद्धि मिलती

इससे संकल्प वो करे जहां जाने का

शरीर उसी क्षण पहुँच जाता वहीं।


मन को उपादान कारण बनाकर

देवता का रूप धारण करना चाहे

अपने मन के अनुकूल वैसा ही

वो योगी रूप धारण करे।


इसका कारण यह है कि उसने

अपने चित को मेरे साथ जाने दिया

प्रवेश करना चाहे किसी शरीर में

“ मैं उस शरीर मैं हूँ “, ये करे भावना।


वायुरूप धारण कर लेता

प्राण उसका यह करने से

और प्रवेश कर जाता वो

यह शरीर छोड़ दूसरे शरीर में।


शरीर परित्याग करना चाहे योगी जो

गुदा द्वारा वो दबाकर अपने

प्राणवायु को, हृदय, वक्षस्थल

कंठ, मस्तक में ले जाए।


फिर ब्रह्मरंध्र के द्वारा उसे

ब्रह्म में लीन कर शरीर परित्याग करे

देवताओं के विहारस्थलों पर जाने की इच्छा तो

सत्यस्वरूप की भावना करे मेरे।


मेरे सत्यसंकल्प स्वरूप में

चित स्थिर कर लिया जिस पुरुष ने।

मन से जिस समय जैसा संकल्प करता है

संलग्न है उसी के ध्यान में।


उस समय वह संकल्प उसका

सिद्ध हो जाता तुरंत ही

मेरी आज्ञा कोई टाल ना सकता

मैं इशितव, नशित्व सिद्धियों का स्वामी।


जो चिन्तन करके मेरे इस रूप की

उसी भाव में युक्त हो जाता

मेरे समान उसकी आज्ञा भी

कोई भी टाल नही सकता।


शुद्ध हो गया जिस योगी का चित

मेरी धारणा करते करते ही

जन्म मृत्यु आदि अदृष्ट विषय को भी

जान लेती है उसकी बुद्धि।


भूत, भविष्य, वर्तमान की सभी

बातें उसे मालूम हो जातीं

जिसने चित मुझमें लगा दिया उसको

नष्ट ना कर सकें अग्नि, जल आदि।


जो पुरुष श्री वत्स आदि चिन्हों और

शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि आयुधों से

ध्वजा, छत्र, चँवर आदि से सम्पन्न

मेरे अवतारों का ध्यान करे।


वह अजय हो जाता और

कोई भी जीत ना सके उसको

मेरी आराधना, मेरा चिन्तन करने से

उसे सभी सिद्धियाँ पूर्णत्य प्राप्त हों।


संयमी जो और मेरे स्वरूप की

धारणा कर रहा, उसके लिए

कोई भी सिद्धि ऐसी नही

परंतु श्रेष्ठ पुरुष कहते ये।


कि जो लोग भक्ति योग या

ज्ञानयोगादि उत्तम योगों का

अभ्यास कर रहे हैं, और चित

मुझसे एक हो रहा जिनका।


उनके लिए इन सिद्धियों का

प्राप्त होना एक विघ्न ही

क्योंकि समय का दुरुपयोग हो

इनके कारण उनका व्यर्थ ही।


जन्म, औषधि, तपस्या, मंत्रादि से

जितनी सिद्धियाँ प्राप्त हैं होतीं

जगत में वो सब सिद्धियाँ

योग के द्वारा मिल जातीं।


परंतु योग की अन्तिम सीमा 

मेरे सारूप्य आदि की प्राप्ति

बिना मुझमें चित लगाए

किसी भी साधन से प्राप्त नही होती।


समस्त साधनों, सिद्धियों का

एकमात्र स्वामी, प्रभु मैं

प्राणियों के भीतर द्रष्टा रूप में

बाहर दृश्य रूप में स्थित मैं।


बाहर भीतर का मुझमें 

भेद भी कोई नही है

क्योंकि चित में निरावरण

एक अद्वितीय आत्मा मैं।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Classics