श्रीमद्भागवत -३२१; राज्य,युगधर्म और कलियुग के दोषों से बचने का उपाय
श्रीमद्भागवत -३२१; राज्य,युगधर्म और कलियुग के दोषों से बचने का उपाय


श्रीमद्भागवत -३२१; राज्य,युगधर्म और कलियुग के दोषों से बचने का उपाय - नाम संकीर्तन
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
पृथ्वी जब देखती है कि
मुझ पर विजय प्राप्त करने को
उतावले हो रहे राजा लोग सभी ।
तब वह हंसने लगती और कहती
“ कितने आश्चर्य की बात ये
राजा ये मौत के खिलौने सब जो
मुझको ये जीतना चाहते ।
राजाओं से भी यह बात छिपी नहीं
कि एक ना एक दिन वे मर जाएँगे
मुझे जीतने की कामना करते
फिर भी सभी वे व्यर्थ में ।
क्षणभंगुर इस शरीर पर विश्वास कर
धोखा खा बैठते वह सभी
मन में आशाएँ बांध लेते हैं
पृथ्वी को अपने अधीन करने की ।
सूझती नहीं उनको बात ये
कि काल सवार है सिर पर उनके
वश में हो जाता एक द्वीप जब
दूसरे द्वीप को जीतने के लिए ।
समुंदरयात्रा भी करते वो राजा
मन इंद्रियों को वश में करके
मुक्ति प्राप्त करते लोग इससे
वो बस थोड़ा भूभाग प्राप्त करें ।
इतने परिश्रम और आत्मसंयम का
कितना ही तुच्छ फल है ये
पृथ्वी के बड़े बड़े मनु भी
मुझे ज्यों का त्यों छोड़ चले गये ।
जहां से आये थे वहीं पर
ख़ाली हाथ लौट गये वो
अपने साथ ना ले जा सके मुझको
वो वीर मनु और पुत्र उनके जो ।
अब ये मूर्ख राजा मुझे जीतकर
अपने वश में करना चाहते
जो सोचें कि ये पृथ्वी मेरी है
उन दुष्टों के राज्य में ।
पिता पुत्र और भाई भाई भी
जब बैठते हैं आपस में
एक दूसरे से कहते सुनते
स्पर्धा करते एक दूसरे से ।
मेरे लिये मारते एक दूसरे को
अंत में मर मिटते स्वयं ही
पृथु, पुरुरवा, गाधि, नहुष
अर्जुन, खट्वांग, रघु, ययाति आदि।
राम, भागीरथ, रावण, हिरण्याक्ष
तारकासुर आदि दैत्य बड़े बड़े
सब कुछ समझते थे और
बड़े ही शूर थे सब ये ।
इन सभी ने दिग्विजय में
हरा दिया सभी राजाओं को
परंतु मृत्यु का ग्रास बन गये
अंत में सब के सब वीर वो ।
“ यह पृथ्वी मेरी है” उन्होंने
पूरे अंतकरण से ये समझा
परंतु विकराल काल ने उनकी
पूरी ना होने दी ये लालसा ।
अब उनके शरीर और बल पौरुष का
किसी को कुछ पता ही नहीं
शेष रह गई हैं बस अब
कहानी मात्र ही उन सबकी ।
परीक्षित, महान पुरुष हुए हैं
बड़े बड़े प्रतापी संसार में
वो लोकों में अपने यश का
विस्तार करके चले गये यहाँ से ।
तुम्हें ज्ञान और वैराग्य का
उपदेश देने के लिए ही
तुम्हें उनकी ये कथा सुनाई
पारमार्थिक सत्य इसमें कुछ भी नहीं ।
समस्त अमंगलों का नाश करे
गुणानुवाद श्री कृष्ण का
गान करते रहते सदा ही
बड़े बड़े महात्मा उसी का ।
राजा परीक्षित ने पूछा, भगवान
मुझे तो इस कलियुग में बस
राशि राशि दोष दिखते हैं
लोग नाश करें इनका कैसे ।
इसके अतिरिक्त युगों का स्वरूप
उनके धर्म, कल्प की स्थिति
वर्णन कीजिए प्रलयकाल का
और भगवान के कालरूप का भी ।
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
चार चरण सतयुग में धर्म के
सत्य, दया, तप और दान हैं
लोग धर्मपालन करें उस समय ।
धर्म भगवान का ही स्वरूप है
संतोषी होते लोग सतयुग में
शांत रहते, दयालु होते हैं
मित्रता का व्यवहार करें सबसे ।
इंद्रियाँ, मन हो उनके वश में
सुख दुख सहन करे समान भाव से
समदर्शी, आत्माराम होते हैं बहुत
बाक़ी स्वरूपस्थिति के लिये अभ्यास करें ।
परीक्षित, धर्म के अनुसार ही
चार चरण अधर्म के भी
असत्य, हिंसा, असंतोष और कलह
कलियुग में बढ़ जाते ये सभी ।
त्रेता युग में इनके प्रभाव से
सत्य आदि धर्म के चरण जो
चतुर्थांश क्षीण हो जाता उनका
धीरे धीरे घटते रहते वो ।
उस समय अक्षुण्य रहती है
वर्णों में प्रधानता ब्राह्मणों की
अत्यंत हिंसा और लंपटता का
अभाव रहता है लोगों में भी ।
कर्मकाण्ड और तपस्या में
लोग सभी निष्ठा रखते हैं
अर्थ, धर्म एवं कामरूप
त्रिवर्ग का सेवन करते हैं ।
अधिकांश लोग कर्म प्रतिपादक
वेदों के विद्वान हैं होते
और जब द्वापर आ जाता
अधर्म के चरण हैं बढ़ते जाते ।
हिंसा, असंतोष, झूठ और द्वेष
हो जाती इन सबकी वृद्धि
धर्म के चरण क्षीण हो जाते
तपस्या, सत्य , दया, दान आदि ।
इस समय के लोग बड़े यशस्वी
कर्मकांडों, वेदों के अध्ययन में
बड़े ही तत्पर होते हैं और
कुटुम्भ होते उनके बड़े बड़े ।
प्राय सभी धनाढ्य, सुखी हों
क्षत्रियों, ब्राह्मणों की प्रधानता होती
अधर्म के चारों चरण बढ़ जाते
परीक्षित, कलियुग के आते ही ।
धर्म के चारों चरण तब
क्षीण वो हैं होने लगते
उनका चतुर्थ ही बच रहता हैं
लोप हो जाता वो भी अंत में ।
दुराचारी, कठोर हृदय लोग हों
एक दूसरे से वैर मोल लेते
शूद्र आदि की प्रधानता होती है
बहते रहते लालसा, तृष्णा में ।
सत्य, रज और तम तीन गुण
सभी प्राणियों में होते हैं ये
काल की प्रेरणा से समय समय पर
शरीर, प्राण और मन में ।
उनका ह्रास, विकास हुआ करता
और मन, बुद्धि, इंद्रियाँ जिस समय
काम करते सत्वगुण में स्थित हो
समझना चाहिए सत्वयुग उस समय ।
सत्वगुण की प्रधानता के समय मनुष्य
ज्ञान और तपस्या से अधिक प्रेम करें
और धर्म, अर्थ, सुख भोगों की और
प्रवृति और रुचि मनुष
्य की जिस समय ।
तथा शरीर, मन और इंद्रियाँ
रजोगुण में स्थित हो काम करें
त्रेतायुग अपना काम कर रहा
उस समय समझना चाहिए ।
असंतोष, अभिमान, दम्भ, मत्सर आदि
दोषों का बोलबाला हो जिस समय
और मनुष्य बड़ी रुचि, उत्साह से
सकाम कर्मों में लगना चाहे ।
द्वापर युग समझना चाहिए उस समय
और इस द्वापर युग में अवश्य ही
मिश्रित प्रधानता होती है
रजोगुण और तमोगुण की ।
झूठ, कपट, तंद्रा- निद्रा
हिंसा - विषाद, शोक, मोह, भय, हीनता
इन तमोगुणों की प्रधानता होती जब
समझो राज्य होता कलियुग का ।
लोगों की दृष्टि क्षुद्र हो जाती तब
भाग्य बहुत ही मंद हो चाहे उनका
परंतु कामनाएँ होतीं बहुत बड़ीं
स्त्रियों में आता कुलटापन, दुष्टता ।
सारे देश में, गाँव गाँव में
लुटेरों की प्रधानता हो जाती
नये नये मत चला मनमाने ढंग से
वेदों का तात्पर्य निकालते पाखंडी ।
राजा कहलाने वाले लोग ही
प्रजा की कमाई हड़प कर जाते
ब्राह्मणनामधारी पेट भरने और
जननेंद्रियों को तृप्त करने में लग जाते ।
ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्यव्रत से रहित हों
और अपवित्र रहने लगते हैं
गृहस्थ भिक्षा देने के बदले
स्वयं भीख माँगने लगते हैं ।
वानप्रस्थी गाँवों में बसने लगते
लोभी, अर्थ पिशाच हो जाएँ संन्यासी
भूख बढ़ जाती स्त्रियों की पर
आकार में वो छोटी हो जातीं ।
संतान बहुत अधिक होती उन्हें
और कुल, मर्यादा का उलंघन करके
लाज, हया छोड़ बैठतीं
कड़वी बात करतीं सदा वे ।
चोरी, कपट में निपुण हो जातीं
साहस बहुत बढ़ जाता उनमें
व्यापारी अत्यंत क्षुद्र हो जाते
धोखाधड़ी करने लगते वे ।
आपत्ति ना होने पर भी
और धनी होने पर भी वे
निम्न श्रेणी का व्योपार करते हैं
सत्पुरुष जिनकी हैं निंदा करते ।
स्वामी चाहे सर्वश्रेष्ठ ही क्यों ना हो
पास में धन जब ना रहे उसके
देखकर कि दौलत अब नहीं रही
सेवक उन्हें छोड़ चले जाते ।
कितने ही पुराने सेवक हों पर
विपत्ति में कभी फँस जाता जब कभी
स्वामी उसे छोड़ देते हैं
क्या होगा उसका ये सोचें नहीं ।
और तो और गोएँ भी जब
दूध देना बंद कर देतीं
परित्याग कर देते उसका
कलियुग के ये लोग तभी ।
परीक्षित, इस कलियुग में मनुष्य
बड़े ही लम्पट हो जाते
कामवासना तृप्त करने के लिए ही
किसी से प्रेम वो करते ।
वशीभूत होकर विषयवासनाओं के
इतने दीन हो जाते हैं वो
कि माता -पिता, भाई - बंधु और
मित्रों को भी छोड़ देते वो ।
शूद्र तपस्वियों का वेष बनाकर
पेट भरते रहते हैं अपना
धर्म का रत्तीभर ज्ञान ना जिन्हें
ज्ञान देते हैं वो धर्म का ।
भयभीत और आतुर हो जाती
सूखा पड़ने के कारण प्रजा
अस्थिपंजर शरीर बन जाता है
मन में उद्वेग शेष रह जाता ।
कठिन हो टुकड़ा मिलना भी
प्राण रक्षा के लिए रोटी का
शरीर ढकने के लिए वस्त्र ना
पीने के लिए पानी ना मिलता ।
आकृति, प्रवृति और चेष्ठाएँ लोगों की
हो जाती पिशाचों की सी
वैर विरोध करने लगते हैं
वो कुछ कौड़ियों के लिए ही ।
बहुत दिनों के सदभाव और
मित्रता को तिलांजलि दे देते
सगे संबंधियों की हत्या कर देते
दमड़ी - दमड़ी तक के लिए ।
कलियुग के क्षुद्र प्राणी केवल
लगे रहते बस पेट भरने को
कामनाओं की पूर्ति के लिए बस
दिन रात मेहनत करते वो ।
बूढ़े माँ बाप का पालन पोषण
नहीं करते हैं पुत्र उनके
और योग्य पुत्र को भी अपने
पिता अलग करने की सोचें ।
परीक्षित, परम्गुरु भगवान जगत के
ऐश्वर्य अनन्त है उनका
एकरस अपने स्वरूप में स्थित
वो तो जगत के हैं परम्पिता ।
परंतु कलियुग में लोगों में
फैल जाती इतनी मूढ़ता
पाखंडी भटका देते उनको
भगवान से भी विमुख हो जाता ।
परीक्षित, अनेकों दोष कलियुग में
कुलवस्तुएँ दूषित हो जातीं
स्थानों में भी दोष की
कलियुग में प्रधानता होती ।
अपना अंतकरण ही है
सब दोषों का मुख्य स्रोत तो
परंतु जब भगवान हृदय में विराजते
दोष नष्ट होते सभी वो ।
गुण लीला, नाम के श्रवण और
संकीर्तन से विराजते वे हृदय में
और ढेरों के ढेर पाप वो
क्षणभर में भस्म कर देते ।
अशुभ संस्कारों को मिटा देते
अंतकरण की शुद्धि हो जाती
भगवान को चित में बैठाकर
ही होती हृदय की शुद्धि ।
परीक्षित, तुम्हारी मृत्यु निकट अब
अब तुम सावधान हो जाओ
पूरी शक्ति से सभी वृत्तियों से
कृष्ण को अपने हृदय में बैठाओ ।
ऐसा करने से अवश्य ही
परम्गति प्राप्त होगी तुम्हें
जो लोग मृत्यु के निकट हों
भगवान का ध्यान उन्हें करना चाहिए ।
जो भगवान का ध्यान करें उनको
अपने में लीन कर लेते हैं वो
अपना स्वरूप बना लेते उसे
चरणों में स्थान दें देते उसको ।
परीक्षित, कलियुग दोषों का ख़ज़ाना
परन्तु एक बहुत बड़ा गुण भी इसमें
परमात्मा की प्राप्ति हो जाती
कृष्ण का संकीर्तन करने मात्र से ।
सतयुग में भगवान का ध्यान करने से
त्रेता में बड़े बड़े यज्ञों द्वारा
और द्वापर में विधीपूर्वक
उनकी पूजा, सेवा से जो मिलता ।
वही सारे फल कलियुग में
केवल श्री कृष्ण भगवान के
नाम लीला के श्रवण और
संकीर्तन से प्राप्त हो जाते ।