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Ajay Singla

Others

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संसार चक्र

संसार चक्र

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धरती पर मेरा एक गाँव था सुंदर 

सूर्य की किरणें थी हमें जगातीं 

छत से उठकर जब नीचे आता 

ठण्डी पवन सर सर छू जाती ।


सूर्य भी वही किरणें भी वही हैं 

रोज़ धरती पर भी आती हैं 

खिड़की से टकराकर बंद कमरे की 

मुझ तक पहुँच नहीं पाती हैं ।


पापा के संग तब सैर को जाते 

हरे भरे थे खेत वहाँ पर

नीम की दातुन मुंह में मेरे 

भागूँ भैया से दौड़ लगाकर ।


बिस्तर से उठूँ, बाथरूम में जाऊँ 

ब्रश करूँ अब कोलगेट से 

चाय का प्याला लेकर हाथ में 

घुस जाऊँ फिर से बिस्तर में ।

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दो तीन मील चलने से 

कभी थकता नहीं था बचपन में 

गाड़ी लूँ, बग़ल में भी जाना हो 

आलस इतना अब मेरे मन में ।


खुश रहता सदा जब छोटा था 

हाथ ख़ाली, मन आनंद से भरा

चिंता घेरे रहती अब क्यों है 

कोई बताये मुझको तो जरा ।


बीता बचपन फिर आई जवानी 

अब बुढ़ापा दस्तक दे रहा 

समय कहीं, कभी भी ना रुकता 

सच ही ये किसी ज्ञानी ने कहा ।


वर्ष बीतते, दशक भी बीतें 

बीतें शताब्दी और बीतें युग भी 

बीते मन्वन्तर, कल्प बीत गये 

संसार चक्र चल रहा ऐसे ही ।



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