संसार चक्र
संसार चक्र


धरती पर मेरा एक गाँव था सुंदर
सूर्य की किरणें थी हमें जगातीं
छत से उठकर जब नीचे आता
ठण्डी पवन सर सर छू जाती ।
सूर्य भी वही किरणें भी वही हैं
रोज़ धरती पर भी आती हैं
खिड़की से टकराकर बंद कमरे की
मुझ तक पहुँच नहीं पाती हैं ।
पापा के संग तब सैर को जाते
हरे भरे थे खेत वहाँ पर
नीम की दातुन मुंह में मेरे
भागूँ भैया से दौड़ लगाकर ।
बिस्तर से उठूँ, बाथरूम में जाऊँ
ब्रश करूँ अब कोलगेट से
चाय का प्याला लेकर हाथ में
घुस जाऊँ फिर से बिस्तर में ।
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दो तीन मील चलने से
कभी थकता नहीं था बचपन में
गाड़ी लूँ, बग़ल में भी जाना हो
आलस इतना अब मेरे मन में ।
खुश रहता सदा जब छोटा था
हाथ ख़ाली, मन आनंद से भरा
चिंता घेरे रहती अब क्यों है
कोई बताये मुझको तो जरा ।
बीता बचपन फिर आई जवानी
अब बुढ़ापा दस्तक दे रहा
समय कहीं, कभी भी ना रुकता
सच ही ये किसी ज्ञानी ने कहा ।
वर्ष बीतते, दशक भी बीतें
बीतें शताब्दी और बीतें युग भी
बीते मन्वन्तर, कल्प बीत गये
संसार चक्र चल रहा ऐसे ही ।