श्रीमद्भागवत -३१७; यदुकुल का संहार
श्रीमद्भागवत -३१७; यदुकुल का संहार


श्रीमद्भागवत -३१७: यदुकुल का संहार
राजा परीक्षित ने पूछा, भगवन
उद्धव जब बद्रीवन चले गये
तब क्या लीला रची थी
द्वारका में भगवान कृष्ण ने ।
ब्राह्मणशाप ग्रस्त होने पर
अपने कुल यदुवंश के
अपने श्री विग्रह की लीला का
संवरण कैसे किया उन्होंने ।
भगवन जब स्त्रियों के नेत्र
श्री विग्रह में लग जाते उनके
तब वहाँ से हटाने में उनको
असमर्थ हो जाती थीं वे ।
रूप माधुरी का वर्णन सुनते हैं
जब संतपुरुष उनकी तो
वाणी के रास्ते प्रवेश करता है
उनके चित में श्री विग्रह वो ।
फिर उनके चित में गड जाता वो
हटना नहीं चाहता वहाँ से
अनुराग का रंग भर देती है
शोभा उसकी कवि की रचना में ।
महाभारत के युद्ध के समय
जब वे अर्जुन के साथ थे रथ पर
उस समय जिन योद्धाओं ने
शरीर त्यागा उनको देखकर ।
उन्हें भी सारूप्य मुक्ति मिली
फिर अपना श्री विग्रह कृष्ण ने
जो कि इतना अदभुत था
अंतर्धान किया उसको कैसे ।
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
जब देखा ये श्री कृष्ण ने
कि आकाश, पृथ्वी, अंतरिक्ष में
बड़े बड़े उपद्रव हो रहे ।
तब उन्होंने सुधर्मा सभा में
कहा उपस्थित सभी यदुवंशियों से
कहा कि द्वारका में जो अपशकुन हो रहे
महान अनिष्ट के सूचक ये ।
घड़ी दो घड़ी भी नहीं ठहरना चाहिए
यहाँ पर अब हम लोगों को
यहाँ से शंखोंद्वार क्षेत्र चले जायें
स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े जो ।
और हम सब प्रभास क्षेत्र चलेंगे
आप सब तो ये जानते हैं कि
सरस्वती पश्चिम की और बहकर
वहाँ समुंदर में जा मिलती ।
स्नान करके पवित्र होकर वहाँ
देवताओं की पूजा करेंगे
ब्राह्मणों का सत्कार करेंगे जिससे
अमंगलों का नाश होगा हमारे ।
सभी वृद्ध यदुवंशियों ने
अनुमोदन किया श्री कृष्ण का
प्रभासक्षेत्र की यात्रा की
नौकाओं से समुंदर पार किया ।
शान्तिपाठ किया वहाँ पहुँचकर
परंतु दैव ने बुद्धि हर ली उनकी
मैरयेक नामक मदिरा का
पान करने लगे यदुवंशी ।
उसके नशे से बुद्धि भ्रष्ट हुई
सब के सब उन्मत्त हो गये
एक दूसरे से ही वहाँ पर
वो घमंडी वीर लड़ने लगे ।
सच पूछो तो सब कृष्ण की माया
मूढ़ हो रहे थे वो उससे
अपने अस्त्र, शस्त्रों से वो सब
एक दूसरे को घायल करने लगे ।
प्रद्युम्न साम्ब से, अक्रूर। से
अनिरुद्ध सात्त्विक से लड़ रहे
सुभद्र संग्रामजित से, श्री कृष्ण के भाई
गद लड़ रहे अपने पुत्र से ।
भगवान श्री कृष्ण की माया ने
मोहित कर रखा उन सबको
और अंधा कर दिया था
मदिरा के नशे ने उनको ।
मूढ़ता वश पुत्र पिता का
भाई भाई का, भानजा मामा का
नाती नाना का, मित्र मित्र का
सुहृद सुहृद का वध कर रहा ।
अस्त्र, शस्त्र जब नष्ट हो गये
समुंदर तल पर लगी हुई
एरका नाम की घास उखाड़कर
लड़ने लगे वो सभी महारथी ।
ब्राह्मणों के शाप से उत्पन्न मूसल के
चूरे से पैदा हुई थी घास ये
उनके हाथ में आते ही परिणीत हुई
वज्र समान कठोर मुद्ग़र के रूप में ।
एक दूजे पर प्रहार करें उसीसे
भगवान कृष्ण ने जब मना किया तो
शत्रु समझ लिया कृष्ण, बलराम को
मारने के लिए दौड़े वो उनको ।
कृष्ण, बलराम को क्रोध आ गया
मुट्ठी भर एरका घास उखाड़ वो
उन सब पर प्रहार करने लगे
मारने लगे यदुवंशियों को ।
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ब्राह्मण शाप से ग्रस्त और
माया से मोहित हो कृष्ण की
यदुवंशियों का ध्वंस कर दिया
स्पर्धामूलक क्रोध ने ही ।
जब भगवान कृष्ण ने देखा
संहार हो चुका सब यदुवंशियों का
यह सोच संतोष हुआ उनको कि
पृथ्वी का बचा खुचा भार उतर गया ।
परीक्षित तब भगवान बलराम जी
समुंदर तट पर बैठ गए वहाँ
एकाग्रचित हो आत्मा को
आत्मस्वरूप में स्थित कर लिया ।
मनुष्यशरीर छोड़ा बलराम ने
और जब ये देखा श्री कृष्ण ने
एक पीपल के पेड़ के नीचे
वो धरती पर ही बैठ गए ।
चतुर्भुज रूप धारण कर लिया
मेघ समान सांवले शरीर से
दिशाओं को प्रकाशमान कर रही
ज्योति जो निकल रही शरीर से उनके ।
दाहिनी जाँघ पर अपनी उन्होंने
बाएँ चरण को रख रखा
रक्तकमल के समान दमक रहा
लाल लाल तलवा पाँव का ।
जरा नाम का बहेलिया एक था
मूसल के बचे हुए टुकड़े से
बाण की गाँसी बना ली थी उसने
आया था वो उसी क्षेत्र में ।
लाल लाल तलवा भगवान का
हरिण मुख समान जान पड़ा उसे
सचमुच का हरिण समझकर
बेंध दिया उसको बाण से ।
पास आया तो उसने देखा
चतुर्भुज पुरुष है ये तो
डरते और काँपते हुए तब
चरणों में कृष्ण के गिर पड़ा वो ।
कहे “ मधुसूदन, अनजाने में
मैंने है अपराध किया ये
परम्यशस्वी, निर्विकार आप
मेरा अपराध क्षमा कीजिए ।
निरपराध हरिणों को मारने वाला पापी मैं
आप मुझे अभी मार डालिये
ताकि किसी महापुरुष का ऐसा
अपराध ना कर सकूँ मैं फिर से “ ।
भगवान कृष्ण ने कहा, “ हे ज़रे
मेरे मन का ही काम किया तुमने
पुण्यवानों को जो मिलता है
निवास कर अब तू उस स्वर्ग में ।
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
परिक्रमा की कृष्ण की जरा व्याध ने
विमान पर सवार होकर फिर
स्वर्ग को चला गया वहाँ से ।
भगवान कृष्ण का सारथी दारुक
उन्हें ढूँढते हुए वहाँ आए
देखा श्री कृष्ण बैठे हैं
पेड़ के नीचे आसन लगाए ।
असह तेज वाले आयुध सब
मूर्तिमान हो संलग्न उनकी सेवा में
प्रेम की बाढ़ आ गई
उन्हें देख दारुक के हृदय में ।
अश्रुधारा बहने लगी और
भगवान के चरणों पर गिर पड़े
कहने लगे “ प्रभु, मैं बहुत दुखी था
दर्शन ना पाकर चरणों के आपके ।
चारों और अंधेरा छा गया
ना मुझे ज्ञान दिशाओं का ही
ना शान्ति हृदय में मेरे “
ऐसा दारुक कह ही रहा था कि ।
भगवान का गरुड़ ध्वज, रथ
पताका और घोड़ों के साथ में
आकाश में उड़ गया और पीछे पीछे
भगवान के आयुध भी चले गये ।
दारुक के आश्चर्य की सीमा ना रही
तब भगवान ने कहा उससे
“ दारुक, द्वारका चले जाओ तुम
और कहना ये वृतांत वहाँ सबसे ।
यदुवंशियों के पारस्परिक संहार और
परमगति भैया बलराम की
मेरे स्वधामगमन की बात भी करना
और उनसे तुम कहना ये भी ।
“ कि तुम लोगों को अब
द्वारका में नहीं रहना चाहिए
समुंदर नगरी को डुबो देगा
ना रहने पर वहाँ मेरे ।
अपने सभी कुटुम्बियों को और
लेकर मेरे माता पिता को
अर्जुन के संरक्षण में
तुम लोग इंद्रप्रस्थ चले जाओ ।
दारुक, तुम अब मेरे द्वारा
उपादिष्ट भागवतधर्म का आश्रय लो
इस दृश्य को मेरी माया समझकर
ज्ञाननिष्ठ हो शांत हो जाओ ।
भगवान कृष्ण की आज्ञा पाकर
परिक्रमा की उनकी दारुक ने
द्वारका की और चल पड़े
चरणकमलों में प्रणाम कर उनके ।