श्रीमद्भागवत -३२२; चार प्रकार की प्रलय
श्रीमद्भागवत -३२२; चार प्रकार की प्रलय


श्रीमद्भागवत -३२२; चार प्रकार की प्रलय
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
परमाणु से लेकर स्वरूप काल का
और युग में कितने वर्ष हैं
ये मैं पहले ही वर्णन कर चुका ।
अब तुम वर्णन सुनो कल्प की
स्थिति और उसकी प्रलय का
राजन, एक हज़ार चतुर्युगी का
ब्रह्मा का एक दिन होता ।
इस एक दिन को कल्प भी कहें
चौदह मनु होते एक कल्प में
और कल्प के अन्त में
प्रलय भी रहता समय तक उतने ।
ब्रह्मा की रात भी कहें इस प्रलय को
तीनों लोक उस समय लीन हों
उनका प्रलय हो जाता है और
नैमित्तिक प्रलय कहते हैं इसको ।
विश्व को अपने अंदर समेट कर
इस प्रलय के समय ब्रह्मा जी
शयन कर जाते और तत्पश्चात्
शयन करें शेषरूपी नारायण भी ।
रात के बाद दिन और
फिर से रात होते होते
जब बीत जाते सौ वर्ष
ब्रह्म जी के मान से ।
और मनुष्यों की दृष्टि से
दो प्रारर्द्ध आयु समाप्त हो जाती
तब महत्त्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्रा
प्रकृति में लीन हो जातीं ।
प्राकृतिक प्रलय इसका नाम है
इस प्रलय में पंचभूतों से बना
स्थूलरूप छोड़ ब्रह्मांड अपना
कारण रूप में घुल मिल जाता ।
प्रलय का समय आने पर
वर्षा ना होती सौ वर्ष तक
किसी को भी अन्न ना मिलता
भूख प्यास से प्रजा व्याकुल होकर ।
एक दूसरे को खाने लगती है
क्षीण हो जाती धीरे धीरे
प्रलयकालीनसूर्य। प्रबल किरणों से
समुंदर , पृथ्वी का रस खींच ले ।
सोख लेते हैं वो पृथ्वी को
सदा की भाँति बरसाते भी नहीं
संकर्षण भगवान के मुख से उस समय
प्रकट होती प्रलयक़ालीन अग्नि ।
वायु के वेग से बढ़ जाती ये
तल, अतल नीचे के लोक जो
वे सातों भस्म होते इसमें
और ऊपर के लोकों को ।
जलाती सूर्य की प्रबल गर्मी
उस समय इस तरह ऊपर नीचे
यह ब्रह्मांड जलने लगता है
प्रलयक़ालीन वायु भी वहाँ चले ।
सैकड़ों वर्षों तक चलता रहता ये
फिर असंख्य बादल मंडराते आकाश में
बड़ी भयंकरता से गरजकर
सैंकड़ों वर्ष वर्षा करते रहें ।
ब्रह्मांड के भीतर का संसार तब
एक समुंदर है बन जाता
और सब कुछ जो भी है वहाँ
सब का सब जलमग्न हो जाता ।
जब ये जल प्रलय हो जाता
तब जल गंध को ग्रास लेता है
पृथ्वी का विशेष गुण ये गंध जो
अपने में लीन उसे कर लेता है ।
जल में मिल जलरूप हो जाती
ऐसे पृथ्वी का प्रलय हो जाता
इसके बाद जल के गुण रस को
तेजस तत्व ग्रास कर लेता ।
नीरस होकर जल समाये तेज में
फिर वायु तेज के गुण रूप को ग्रास करे
तेज रूपरहित होकर फिर
लीन हो जाता वायु में ।
वायु के गुण स्पर्श को
मिला लेता आकाश अपने में
और वायु स्पर्शहीन होकर
शांत हो जाता आकाश में ।
उसके बाद तामस अहंकार
आकाश के गुण शब्द को ग्रास करे
और शब्दहीन होकर आकाश तब
लीं हो तापस अहंकार में ।
तैजस अहंकार इंद्रियों को और
सात्विक अहंकार इंद्रियाँधिष्ठातृ देवताओं को
और इंद्रियाँवृत्तियों को भी
अपने में लीन कर लेता वो ।
तत्पश्चात् महत्त्त्व अहंकार को ग्रास करें
सत्य आदि गुण ग्रासें महत्त्त्व को
परीक्षित, फिर काल की प्रेरणा से
अव्यक्त प्रकृति ग्रास लेती गुणों को ।
प्रकृति ही प्रकृति बस
तब शेष है रह जाती
चराचर जगत का मूल कारण
ये अव्यक्त, अनादि, अनंत, नित्य, अविनाशी ।
जब वह अपने कार्यों को लीन करके
साम्यावस्था को प्राप्त हो जाती
तब वर्ष, मास, दिन, रात आदि के कारण उसमें
विकार ना हों परिमाण, क्षय, वृद्धि आदि ।
वाणी, मन, गुण। महत्त्त्व आदि विकार
प्राण, बुद्धि, इंद्रियाँ आदि भी
उस समय कुछ भी ना रहे
लोकों की कल्पना और स्थिति भी नहीं रहती ।
स्वप्न, जागृत और सुषुप्ति
नहीं रहती ये अवस्थाएँ भी
आकाश, जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि
और नहीं रहते सूर्य भगवान भी ।
सब कुछ सोये हुए के समान
शून्य सा ही रहता है
इस अवस्था का तर्क के द्वारा
अनुमान करना भी असंभव है ।
उस अव्यक्त को ही जगत का
मूल भूत तत्व हैं कहते
और प्राकृत प्रलय भी
इसी अवस्था को हैं कहते ।
प्राकृत और पुरुष दोनों ही शक्तियाँ
उस समय काल के प्रभाव से
क्षीण हो जातीं हैं और
मूल स्वरूप में लीन हों अपने ।
परीक्षित, अब सुनाता स्वरूप तुम्हें
आत्यांत्रिक प्रलय का, जिसे मोक्ष भी कहते
ज्ञानस्वरूप वस्तु ही भासित हो रही
बुद्धि, इंद्रियाँ और उनके विषय के रूप में ।
उन सबका आदि भी, अंत भी
वे सब सत्य ना इसलिए
वे तो सर्वथा मिथ्य हैं
माया मात्र ही हैं सब वे ।
दीपक, नेत्र और रूप ये तीनों
तेज से भिन्न नहीं हैं जैसे
बुद्धि, इंद्रियाँ, उनके विषय तन्मात्राएँ
ब्रह्म से भिन्न नहीं हैं वैसे ।
यद्यपि ये ब्रह्म सर्वथा भिन्न इनसे
परीक्षित, जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति
ये अवस्थाएँ बुद्धि की ही हैं
तीनों नहीं है ये आत्मा की ।
अतः अंतरात्मा में इनके कारण जो
विश्व, तैजस और प्राज्ञरूप नानत्व की
जो भी है प्रतीति होती
वह केवल माया मात्र ही ।
जो ये नानत्व है उसका
आत्मा से कोई संबंध नहीं
कार्य और कारणभाव के
मिलते हैं आदि, अंत दोनों ही ।
वे अपने अधिष्ठान ब्रह्मस्वरूप
आत्मा से हैं भिन्न नहीं
आत्मा से भिन्न रूप में विरूपन
उसका नहीं कर सकता कोई ।
सोने को अनेकों रूपों में गढ़
गलाकर तैयार कर लेते हम जैसे
कंगन, कुंडल, कड़ा आदि सब
मिलता ये अनेकों रूपों में ।
लौकिक और वैदिक वाणी के द्वारा
उसी प्रकार निपुण विद्वान ये
आत्मस्वरूप भगवान का भी
वर्णन करते अनेकों रूपों में ।
बादल सूर्य से ही उत्पन्न हों
और प्रकाशित होता सूर्य से ही
सूर्य के दर्शन में बाधक बनता वो
सूर्य के अंशनेत्रों के लिए ही ।
इसी प्रकार अहंकार भी
उत्पन्न होता है ब्रह्म से
उसी से प्रकाशित होता और
बाधक बने उसीके साक्षात्कार में ।
तितरबितर हो जब बादल तब
तेज सूर्य का दर्शन करके
वैसे ही जब जिज्ञासा जगती
इस जीव के हृदय में ।
अहंकार तब नष्ट हो जाता
साक्षात्कार हो तब अपने स्वरूप का
आत्मा की मायामुक्त वास्तविक स्थिति ये
यही अत्यांत्रिक प्रलय होता ।
ब्रह्मा से लेकर तिनके तक
प्राणी या पदार्थ हैं जितने भी
हर समय पैदा होते और
मरते रहते हैं ये सभी ।
अर्थात नित्य रूप में इनका
उत्पत्ति, प्रलय होता है रहता
क्षण क्षण बदलते रहते हैं
नदी - प्रवाह और दीप - शिखा ।
बदलती हुई अवस्थाएँ उनकी
देखकर ये निश्चय होता है
कि देहादि भी कालरूप वेग में
बहते बदलते जा रहे हैं ।
उत्पत्ति, प्रलय हो रहा है
इसलिए उनका क्षण क्षण में
जैसे तारे ये आकाश में
हर समय चलते ही रहते ।
परंतु उनकी गति स्पष्ट रूप में
नहीं दिखाई पड़ती किसी को
वैसे ही काल से प्राणियों की
उत्पत्ति, प्रलय का भी पता ना चले ।
नित्य, नैमितिक, प्राकृतिक, आत्यांत्रिक
परीक्षित, चार प्रलय हैं ये ही
सूक्ष्म गति ऐसी ही है
वास्तव में ये काल की ।
समस्त प्राणियों और शक्तियों के
आश्रम हैं स्वयं भगवान ही
ये सब जो मैंने संक्षेप में कहा
लीला कथा ये सब उन्हीं की ।
उनकी लीलाओं का पूर्ण वर्णन तो
नहीं कर सकते ब्रह्मा जी भी
पार कराये संसार सागर से
भगवान की ये लीला कथा ही ।
यही श्रीमद्भागवतपुराण है
तुम्हें सुनाया जो है मैंने
सुनाया था देवर्षि। नारद को
पहले ये ऋषि नर नारायण ने ।
महर्षि कृष्णद्वैपायन मेरे पिता को
सुनाया था इसे नारद जी ने
मुझे फिर उपदेश दिया था
इस ग्रंथ का मेरे पिता ने ।
आगे चलकर शौनकादि ऋषि जब
नैमिशारण्य में ब्रह्मसत्र करेंगे
तब पौराणिक वक्ता सूत जी
उन लोगों को इसका श्रवण करायेंगे ।