श्रीमद्भागवत - १९२; पुरु के वंश, राजा दुष्यंत और भरत के चरित्र का वर्णन
श्रीमद्भागवत - १९२; पुरु के वंश, राजा दुष्यंत और भरत के चरित्र का वर्णन
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
वर्णन करूँ अब पुरु वंश का
तुम्हारा जन्म भी हुआ इसी में
और कई राजर्षि, ब्रह्मर्षियों का।
पुरु का पुत्र था जनमेजय
जनमेजय का प्रचिन्नवान था
प्रचिन्नवन का प्रवीर, उसका नर्मसयु
नर्मसयु का पुत्र चारुपद था।
चारुपद से सुद्यु , उससे बहुगव
बहुगर्व से संयात , उससे अहंयाति
रुद्राशव हुआ अहंयाति से
और दस पुत्र रौद्राशव के।
धृताची अप्सरा रौद्राशव की पत्नी
उसके गर्भ से ये दस पुत्र हुए
ऋतेयु , कुक्षेयु, स्थण्डिलेयु, कृतेयु, जलेयु
सन्ततेयु, धर्मेयु, सत्येयु,व्रतेयु, वनेयु नाम के।
ऋतेयु का पुत्र रन्तिभार था
रन्तिभार के तीन पुत्र हुए
सुमति, ध्रुव और अप्रतिरथ
अप्रतिरथ के पुत्र कण्व थे।
कण्व का पुत्र मेघातिथि हुआ
और इसी मेघातिथि से
प्रस्कण्व आदि ब्राह्मण उत्पन्न हुए
रैभ्य पुत्र हुआ सुमति के।
उसी रैभ्य का पुत्र दुष्यंत था
एक बार दुष्यंत एक वन में
सैनिकों को साथ लेकर वो
शिकार खेलने गए हुए थे।
कण्व मुनि के आश्रम पर पहुंचे
बैठी हुई वहां एक मनोहर स्त्री
राजा दुष्यंत मोहित हो गया
उस सुंदरी को देखते ही।
कामवासना जागृत हुई मन में
पूछा बड़ी मधुर वाणी में
देवी, कौन हो, किसकी पुत्री हो
क्या कर रही इस निर्जन वन में।
अवश्य ही तुम क्षत्रिय की कन्या
क्योंकि चित कभी पुरुवंशिओं का
अधर्म की और नहीं झुकता है
सुन ये, शकुंतला ने उनसे कहा।
आपका कहना सत्य है
मैं पुत्री विश्वामित्र की
वन में मुझे माँ ने छोड़ दिया
अप्सरा मेनका मेरी माँ थी।
पालन पोषण ऋषि कण्व ने किया
वीर शिरोमणि, आप बैठो यहाँ
जो कुछ है स्वीकार कीजिये
सत्कार जो मैं कर सकूं आपका।
दुष्यंत ने कहा, सुंदरी
कुशिकवंश में तुम उत्पन्न हुई
पति का वर्ण कर लिया करतीं
राजकन्याएँ स्वयं ही।
स्वकृति मिल जाने पर शकुंतला की
राजा दुष्यंत ने गंधर्व विधि से
धर्मानुसार विवाह कर लिया
वहीँ वन में शकुंतला से।
दुष्यंत का वीर्य अमोघ था
रात में वहां रहकर सुबह वे
अपनी राजधानी चले गए
और समयपर शकुंतला से।
एक पुत्र उत्पन्न हुआ था
जातकर्म संस्कार किये ऋषि कण्व ने
बचपन में ही इतना बलवान वो
सिंहों को बलपूर्वक बाँध ले।
सिंहों से खेला भी करता
भगवान् के अंशावतार थे वे
उसे साथ लेकर शकुंतला
पति के पास आयी अपने।
निर्दोष पतनी और पुत्र को अपने
स्वीकार न किया जब राजा ने
तब अकस्मात् ही वहां
आकाशवाणी हुई सुनी जो सबने।
' पुत्र उत्पन्न करने में माता
धौंकनी के समान ही है
पिता पुत्र के रूप में उत्पन्न हो
वास्तव में पुत्र पिता का ही है।
इसलिए राजा दुष्यंत तुम
करके शकुंतला का
भरण और पोषण करो तुम
शकुंतला और अपने इस पुत्र का।
वंश की वृद्धि करने वाला पुत्र
नरक से उबार लेता पिता को
शकुंतला का कहना सही है
इस पुत्र के पिता तुम्ही हो।
मृत्यु हो जाने पर दुष्यंत की
चक्रवर्ती सम्राट हुआ बालक वो
भगवान् के अंश से जन्म हुआ था
पृथ्वी पर आज भी महिमा का गान हो।
चक्र का चिन्ह दाहिने हाथ में उसके
और पैरों में कमलकोष का
बहुत से यज्ञ किया थे उसने
शक्तिशाली राजा भरत था।
ममता के पुत्र दीर्घतमा मुनि को
पुरोहित बना अशव्मेघ यज्ञ किये
पचपन यज्ञ गंगा के तट पर
और अठहत्तर यमुना तट पर किये।
उन यज्ञों के द्वारा भरत को
परम यश मिला इस लोक में
अंत में श्री हरि को प्राप्त किया
माया पर विजय प्राप्त कर उन्होंने।
यज्ञ में उन्होंने मष्णार कर्म में
चौदह हाथी भी दान किये थे
पहले कोई राजा कर न सका ऐसा
महान कर्म जो किये थे भरत ने।
ब्राह्मणद्रोही राजाओं को मारा
दिग्विजय के समय भरत ने
ले गए थे देवांगनाओं को कुछ असुर
उन्हें छुड़ा लिया था रसातल से।
अठारह हजार वर्ष तक उन्होंने
एक छत्र शासन किया था
सोचकर कि ये सब मिथ्या है
अन्त में वैराग्य उनको हुआ।
परीक्षित सम्राट भरत की पत्नियां थीं
तीन कन्याएं विदर्भराज की
भरत ने उनसे ये कह दिया
पुत्र तुम्हारे मेरे अनुरूप नहीं।
तब वे तीनों थीं डर गयीं
त्याग न दें कहीं सम्राट हमें
मार डाला अपने बच्चों को
यह सोचकर उन सभी ने।
इस प्रकार विच्छिन्न होने लगा
वंश था राजा भरत का
तब उन्होंने संतान के लिए
यज्ञ किया मरुत्स्तोम नाम का।
मरुद्गणों ने प्रसन्न होकर इससे
भरद्वाज पुत्र दिया भरत को
इन भरद्वाज का जो प्रसंग है
वो अब मैं सुनाता हूँ तुमको।
एक बार बृहस्पति जी ने
अपने भाई उत्थप की पत्नी
से मैथुन करना चाहा था
उस समय वो गर्भवती थीं।
गर्भ में तब दीर्घतमा था
उसने इसके लिए मना किया
किन्तु बृहस्पति जी ने उनकी
बात पर ध्यान न दिया।
कहा उसे, तू अँधा हो जा
फिर बलपूर्वक गर्भाधान कर दिया
उत्थप की पत्नी इस बात से डर गयीं
त्याग न कर दे कहीं पति, मेरा।
इसलिए त्याग देना चाहा उसने
बृहस्पति द्वारा होने वाले लड़के को
गर्भस्थ शिशु के नाम का निर्वचन करते हुए
उस समय कहें, वहां देवता जो।
बृहस्पति जी कहते हैं,' री मूढ़े
औरस पुत्र है यह मेरा
मेरे भाई का क्षेत्रज
इस प्रकार ( द्वाज ), पुत्र दोनों का |
इसलिए तू डर मत
इसका तू भरण पोषण कर ( भर ) '
' मेरे पति का नहीं, हम दोनों का ये '
ममता ने कहा, बृहस्पति को सुनकर।
' इसलिए भरण पोषण करो तुम्ही '
दोनों तब विवाद करने लगे
माता पिता दोनों ही फिर
वहां उसे छोड़कर चले गए।
इसलिए नाम भरद्वाज हुआ उसका
और देवताओं के द्वारा
नाम का ऐसा निर्वाचन होने पर भी
ममता ने था यही समझा।
कि मेरा ये पुत्र जो है
वितथ ( अन्याय ) से पैदा हुआ
अतः उस बालक को छोड़ दिया
फिर मरुद्गणों ने उसका पालन किया।
जब नष्ट होने लगा वंश भरत का
तब उसे लाकर उनको दे दिया
यह वितथ ( भरद्वाज ) ही
भरत का दत्तक पुत्र हुआ।