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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत - ९५ ;जड़भरत और राजा रहूगण की भेंट

श्रीमद्भागवत - ९५ ;जड़भरत और राजा रहूगण की भेंट

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शुकदेव जी कहें, हे राजन

एक बार सिन्धुसौवीर देश का

राजा जिसका नाम रहूगण

पालकी में कहीं जा रहा था!


इक्षुमति नदी के पास वो पहुंचा

जरूरत पड़ी एक और कहार की

देववश ये ब्राह्मणदेव मिल गए

जब जमांदार ने खोज शुरू की!


उसे देख जमांदार ने सोचा

हृष्ट पुष्ट यह मनुष्य है

जवान और गठीले शरीर का

बोझ अच्छी तरह ढो सकता है!


यह सोचकर पालकी में जोड़ दिया

कहारों के संग इसे भी 

चुपचाप पालकी को ले चले

बिना बोले कुछ उन्हें, भरत जी!


कोई जीव न मर जाये कहीं

मेरे पांव के नीचे आकर

यह सोच वो चल रहे थे

आगे आगे पृथ्वी को देखकर!


दुसरे कहारों के साथ चाल न

मेल खा रही थी उनकी

राजा रहूगण ने तब देखा

टेढ़ी, सीधी होती पालकी!


तब उसने कहारों से कहा

अच्छी तरह क्यों नहीं चलते

सीधी पालकी को रखो तुम

ऊँची नीची क्यों हो करते!


राजा की ये बात सुनकर तब

कहारों को ये डर लगने लगा

सोचें राजा जो क्रोधित हो गए

तो हमें कोई दण्ड मिलेगा!


इसलिए राजा से कहें वो

कोई नहीं है कसूर हमारा

हम तो ठीक से चल रहे हैं

पालकी में लगा है कहार एक नया!


अभी अभी ये लगा पालकी में

तब भी जल्दी जल्दी नहीं चलता

हमारी चाल भी बिगड़ रही है

हम अब इसके साथ चलें न!


कहारों के दीन बचन सुन राजा

सोचें दोष एक व्यक्ति का भी

दुसरे पुरुष में आ सकता है

इसका प्रतिकार न किया यदि!


सभी की चाल बगड़ जाये न

ये सोच उन्हें क्रोध भी आ गया

बुद्धि रजोगुण में व्यापत हो गयी

द्विजश्रेष्ठ से व्यंग में ये कहा!


अरे भैया, बड़े दुःख की बात है

अवश्य ही तुम थक गए हो

लगता है तुम्हारे साथियों ने

तनिक भी सहारा न दिया तुमको!


अकेले ही इतनी दूर से

ढो रहे हो इस पालकी को

शरीर भी तो बहुत दुर्बल है

सता रखा बुढ़ापे ने तुमको!


इस प्रकार से ताने मारे

तो भी उन्होंने बुरा न माना

चुपचाप पालकी उठाये चलते रहे

तानों को कर दिया अनसुना!


मैं - मेरेपन के अभिमान से

वो तो निवृत हो चुके थे

चित प्रभु में था लगा हुआ

हो गए वो ब्रह्मरूप थे!


अभी भी सीधी न चले पालकी

राजा को था क्रोध आ गया

क्रोध में आग बबूला होकर

उसने गुस्से में था ये कहा!


क्या तू जीते जी मर गया

मेरा निरादर किया है तुमने

मेरी आज्ञा का उलंघन करे

दण्ड अवश्य दूंगा मैं तुम्हे!


राजा होने के अभिमान से

रहूगण बहुत कुछ बोल गया था

अपने को बड़ा पंडित समझकर

भरत जी का तिरस्कार किया था!


राजा की कच्ची बुद्धि देखकर

मन ही में मुस्कुराये वो

बिना किसी अभिमान में आकर

इस प्रकार कहें वो राजा को!


जड़भरत ने कहा, हे राजन 

जो कह रहे वो यथार्थ है 

यदि भार नाम की वसतु कोई है 

ढोने वाले के लिए है! 


यदि कोई मार्ग है तो 

वो चलने वाले के लिए 

मोटापन है तो शरीर के लिए ही 

ये सब नहीं है आत्मा के लिए! 


भूख, प्यास, भय , कलह, इच्छा 

बुढ़ापा, निद्रा, प्रेम, क्रोध हैं 

और अभिमान, शोक ये धर्म सब 

देहभिमान से पैदा होते हैं! 


ज्ञानीजन ऐसी बातें न करते 

अज्ञानी जीव में ये रहते हैं 

बात अपनी करूं तो इनका 

लेशमात्र मुझमें नहीं है! 


जीने मरने की बात कही जो 

सो जितने भी विकारी पदार्थ हैं 

उन सभी में नियमित रूप से 

ये दोनों बातें देखि जाती हैं!


स्वामी सेवक भाव जहाँ स्थिर हो 

आज्ञापालन भी वहीँ लागू हो 

'' तुम राजा और मैं प्रजा हूँ ''

मुझपर ये नहीं लागू हो! 


परमार्थ की दृष्टि से देखें तो 

किसे स्वामी कहें, किसे सेवक कहें 

फिर भी अभिमान स्वामित्व का है तो 

क्या सेवा करूं, आप आदेश दें! 


मैं मत्त, उन्मत्त, जड़ के समान हूँ 

रहता हूँ अपनी स्थिति में 

दण्ड देकर कुछ हाथ लगे न 

मेरा इलाज तुम क्या करोगे! 


वास्तव में अगर मैं जड़ और प्रमाद हूँ 

मुझको शिक्षा देना है ऐसे 

पिसे हुए को दोबारा पीसना 

होता वो व्यर्थ है जैसे! 


शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित 

यथार्थतत्व का उपदेश करते हुए 

मुनिवर जड़भरत राजा को इतना 

उत्तर देकर मौन हो गए! 


देहात्मबुद्धि का उनका 

अज्ञान निवृत हो चुका था 

पालकी लेकर फिर चलने लगे 

मन उनका परम शांत था! 


राजा रहूगण को भी श्रद्धा थी 

कि तत्वज्ञान उनको मिल जाये 

द्विजश्रेष्ठ के ज्ञान को सुनकर 

तुरंत पालकी से उतर गए! 


राजमद था दूर हो गया 

चरणों में सर रख दिया उनके 

क्षमा कराते हुए अपने आप को 

इस प्रकार से वो कहने लगे! 


इस प्रकार प्रच्छन्न भाव से 

विचरने वाले आप कौन हैं 

कल्याण करने हमारा आये क्या 

और आप किस के पुत्र हैं! 


कहीं आप साक्षात भगवान 

कपिल मुनि जी तो नहीं हैं 

डरता हूँ ब्राह्मणकुल के अपमान से 

किसी और से डरता नहीं मैं! 


आप कृपा कर ये बतलाइये 

छुपाकर विज्ञान और शक्ति को 

मूर्खों की भांति विचरने वाले 

आप महापुरुष कौन हो! 


मुझे आपकी कोई थाह न मिल रही 

आपके योगयुक्त वाक्यों से भी 

बुद्धि द्वारा आलोचना करने पर 

मेरा संदेह दूर नहीं हुआ अभी! 


मैं अभी जा रहा था 

भगवान कपिल मुनि के पास में 

इस लोक में शरण लेने योग्य कौन है 

यह प्रश्न उनसे पूछने! 


आत्मा जब सन्निधि में रहती 

देह, इन्द्रियां, प्राण और मन की 

उनके धर्मादि का अनुभव 

आत्मा को तो है होता ही!


आप कहें दण्डादि व्यर्थ है 

परन्तु प्रजा का शासक राजा तो 

उनके पालन के लिए नियुक्त हुआ 

उन्मत्तादि को दण्ड भी दे वो! 


पिसे हुए को पीसने के समान 

व्यर्थ नहीं हो सकता ये है 

क्योंकि धर्म का आचरण करना 

श्री हरी की सेवा ही है! 


राजत्व के अभिमान में मैंने 

आप साधु की अवज्ञा की है 

आप मुझपर ये कृपा कीजिये 

इस अपराध से मुक्त होऊं मैं! 


आप हरि के अनन्य भक्त हैं 

सबमें समान दृष्टि होने से 

आप को कोई विचार नहीं हो 

मान अपमान के कारण से! 


अपमान करके एक महापुरुष का 

मेरे जैसा अज्ञानी पुरुष जो 

थोड़े ही काल में नष्ट हो जाये 

इसलिए आप क्षमा करें मुझको! 



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