सही आदमी और मैं ( दो कविताएं )
सही आदमी और मैं ( दो कविताएं )
सही आदमी और ग़लत आदमी
क्या मुनासिब सही आदमी के लिए,
क्या मुनासिब नहीं आदमी के लिए।
सूरज सोचे सदा से सुबह के लिए,
चांद सोचे सदा से पूनम के लिए,
जल सोचे सदा से नदी के लिए,
है मुनासिब यही आदमी के लिए,
क्या मुनासिब सही आदमी के लिए,
क्या मुनासिब नहीं आदमी के लिए।
दुष्ट सोचे सदा है कलह के लिए,
विष सोचे हमेशा मरण के लिए,
जो नाशे समय न कर्म को करे,
ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए,
क्या मुनासिब सही आदमी के लिए,
क्या मुनासिब नहीं आदमी के लिए।
जो मुर्दा में पशुपति जीवन भरे,
काल की कालिमा को उजाला करे,
ज्ञान चक्षु धारातल को जो जन दिए,
है मुनासिब यही आदमी के लिए,
क्या मुनासिब सही आदमी के लिए,
क्या मुनासिब नहीं आदमी के लिए।
कविता
मैं
बना हूं नूर मैं
जमीं और सितारों में,
मेरा भी नाम गिना
जाता तीन सवारों में।
हूं मैं सब्ज रंग
इन सभी बहारों में,
काला व श्याम हूं
मैं सभी सियारों में।
गंध में सुगंध हूं
मैं सभी गुलाबों में,
शाह शहंशाह हूं
मैं सभी गुलामों में ।
हुस्न की दुकान हूं
प्यार और दुलारो में,
रौनकें अरमान हूं
मैं सभी बाजारों में,
मेरा भी नाम गिना
जाता तीन सवारों में ।
मधुर मनोहर हूं
मैं सभी सुहागों में,
साहस व आशा हूं
मैं सभी अभागों में ।
रंग और गुलाल हूं
मैं सभी नजारों में,
हूरों की हीर हूं
मैं सभी उजाड़ो में ।
रेखा लकीर हूं
मैं सभी कुभागों में,
व्यक्त हूं अव्यक्त हूं
मैं सभी भागों में ।
आजाद हिंद फौज हूं
मैं सभी कतारों में,
नदी का नीर हूं
मैं सभी कगारों में ।
मेरा भी नाम गिना
जाता तीन सवारों में,
बना हूं नूर मैं
जमीं और सितारों में ।