व्यथा वृक्ष की
व्यथा वृक्ष की
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वृक्ष था हरा-भरा
ठूंठ बन खड़ा हुआ
सोचता अतीत को
पक्षियों की प्रीत को
पथिकों की टोलियाँ
बचपन की बोलियाँ
ठंडी शीतल छाँव में
बैठा करते थे गाँव में
डालियों पर झूले जो
अब झूले भी भूले
बीते कल को भूल के
एकाकी के शूल दे
ले कुठारी हाथ में
लकड़हारे के साथ में
अंत हो किस दिवस
सोचता खड़ा विवश