रंगमंच ज़िन्दगी का
रंगमंच ज़िन्दगी का
ज़िन्दगी के रंगमंच का
हर पात्र में निभाता हूँ।
ठोकर खाता हूं उठता हूँ
फिर भी चलता जाता हूँ।
राम सी मर्यादा रखता हूँ
कभी कृष्ण सा बन जाता हूँ।
दशरथ सा में झुकता हूँ
परशुराम सा तन जाता हूँ।
ज़िन्दगी के रंगमंच का
हर पात्र में निभाता हूँ।
ठोकर खाता हूं उठता हूँ
फिर भी चलता जाता हूँ।
संजय सी आँख रखता हूँ
कभी गांधारी भी बन जाता हूँ।
सारा जहाँ जीत लेता हूँ
और पत्नी भी हार जाता हूँ।
ज़िन्दगी के रंगमंच का
हर पात्र में निभाता हूँ।
ठोकर खाता हूं उठता हूँ
फिर भी चलता जाता हूँ।
भरत सा त्याग करता हूँ
कभी शकुनि भी बन जाता हूँ।
अश्वत्थामा सा छल भी है
जिससे में छलता जाता हूँ।
ज़िन्दगी के रंगमंच का
हर पात्र में निभाता हूँ।
ठोकर खाता हूं उठता हूँ
फिर भी चलता जाता हूँ।
छुपी मुझमे मंत्रा भी है
विभीषण भी में बन जाता हूँ।
में ही हूँ कुम्भकर्ण भी
निशाचर भी में कहलाता हूँ।
ज़िन्दगी के रंगमंच का
हर पात्र में निभाता हूँ।
ठोकर खाता हूं उठता हूँ
फिर भी चलता जाता हूँ।
राधा सा प्रेम करता हूँ
शूर्पणखा सी ज़िद कर जाता हूँ।
फूलो पे चलता हूँ और
अंगारों पे भी चल जाता हूँ।
ज़िन्दगी के रंगमंच का
हर पात्र में निभाता हूँ।
ठोकर खाता हूं उठता हूँ
फिर भी चलता जाता हूँ।
फिर भी ये न सोचो तुम
में सब के मन को भाता हूँ।
एक ओर सब हो जाते है
एक ओर पर में आता हूँ।
ज़िन्दगी के रंगमंच का
हर पात्र में निभाता हूँ।
ठोकर खाता हूं उठता हूँ
फिर भी चलता जाता हूँ।
