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Sri Sri Mishra

Classics

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Sri Sri Mishra

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ओ कान्हा

ओ कान्हा

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202

याद है ललिता.....!!!

जब कान्हा ने तुम्हारी.....

खटिया की पटिया में.....

गांठ बांधी थी चुटिया में....

और कान में बोला था जोरों से.......

.....ह..ऊ..वा..आ..आ.आ.....

तू डर कर सहम गई थी......

तुम और गोपियां उसको सखा समझ रही थी......

वो सलोना छोरा ..काला था नटखट....

स्वभाव से था जरा ..अक्कड़़ अटपट.....

बावरी हो बैठी याद में जिसके........

पछाड़ खाती गइया ..भी नहीं जाती......

घास खाने को .....जंगल वन.......

याद है वह कलंगी मयूर जब नाचा था......

रास रचाया था तुम और सखियों कृष्ण ने.....

उस रहस्य का अमृत पान उसने भी चखा था.....

कालिया को नाथ के जब खेला था वो गेंद.......

तुझे नहीं पता....!!!

मानव और ईश में ..कर गया जो भेद.......

खिलाकर माखन ...करके घरों में चोरी..

सफल कर गया जन्मों के तप...

तृप्त हुई मानो ...चंदा की चकोरी...

खुल गई अब... अंतर्मन की गांठे...

लगा रहा मन ..समुद्र में भक्ति की गोतें....

उस बावरे मन से.. अनकही......

हो रही मीठी - मीठी ..बावरी बातें...



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