मेरे जज्बात
मेरे जज्बात
पन्ने दर पन्ने खुलकर उड़ रहे थे..
शब्द मेरी कविता के जैसे मंत्रमुग्ध हो रहे थे..
हर पंक्ति एक दूजे से संवाद कर रही थी..
खिलखिलाती कभी वाद-विवाद कर रही थी..
कभी अतीत के स्मरण में खो जाती..
तो कभी कटु वर्तमान को जी रही थी..
कभी रुबाई ग़ज़ल से महफ़िल सजाती..
कभी सूफ़ियाने क़लाम को हकीक़त कर जाती..
कोरे कागज पर जाने कितने रंग बिखरा कर..
लफ्ज़ बन थिरक कर नृत्य कर जाती....
कभी उद्गार बन भावनाओं में बहती....
कभी इश्क़ बन शायर की शायरी में डूबी जाती...
अपने अस्तित्व से इतिहास को दिखा जाती..
कभी दर्ज किस्सों से दुनिया को अभिभूत करती..
भोर का सुनहरा स्वप्न बन आंँखों में बस रहा था..
सीढ़ी दर सीढ़ी सफलता की चढ़ने को कह रहा था..
उठने का मन न था आलस की अंँगड़ाई ले रही थी..
आंँख खुली सुबह की नींद से तो..
मुस्कुराकर लेखनी जैसे स्वागत कर रही थी.