मानव मन
मानव मन
मनुष्य चलता है नहीं,
चलती हैं केवल कामना,
मनुज प्रकृति स्थिर रहूँ,
मुश्किल है मन को थामना,
है नियंत्रण ही नहीं,
मानव का उसके चित्त में,
वो चाहता रुकना यहीं,
पर मन ये भागता रहे,
बन गया है दास मानव,
चित्त का अपने स्वयं,
फ़िर भी झूठी शान में,
लड़ता है झूठा सा अहम,
दिन रात सुबह शाम,
केवल भागता ही जा रहा,
चाहता पाना सभी कुछ,
कुछ ना लेकिन पा रहा,
अंधकार में यूं फ़िर रहा,
वो ढूंढने परछाइयाँ,
समुद्र में अब डूबता,
चला था नापने गहराइयाँ,
चाहता आज़ाद होना,
बंधन मगर ख़ुद बांधता,
जिस डोर से जुड़ा प्रकृति से,
वो डोर ख़ुद ही काटता,
हर समय ही व्यस्त है,
वो योजना निर्माण में ,
और आप फंसता जा रहा,
उस योजना के जाल में,
ना तो अकेले सुकूं है,
ना भीड़ में आनंद है,
समझ ना पाता मनुज,
ये मन का कैसा द्वंद है,
क्या कोई ऐसी युक्ति है,
मन की गति जो थाम दे,
चंचल चपल इस चित्त को,
कोई रोक ले आराम दे।
अब रोक ले आराम दे।