नौकरीपेशा औरत
नौकरीपेशा औरत
सुबह सवेरे से ही
जब से रखती है कदम धरती पर
शुरू होती है उसकी दौड़।
और बस तभी से होती है शुरू
घड़ी की सुईयों से एक होड़।
पर समय से तेज़
कहाँ होती है रफ़्तार किसी की ?
वो संभालती है घर भी
और नौकरी के लिए
जाती है बाहर भी।
परिवार की धुरी है
ऑफिस में फाइलों से घिरी है।
घर में सबकी ज़रूरतें
उसको मुहज़बानी याद हैं।
बड़ों की दवाओं की फेहरिस्त
उसके ज़हन में बसती है।
बच्चों की फ़रमाइशें भी
उसको हमेशा याद रहती हैं।
वो नौकरीपेशा है
पर पैसों के पीछे वो भागती नहीं।
करती है नौकरी मगर
घर की भी सारी ज़िम्मेदारियाँ
वो बखूबी निभाती है।
कहाँ कोई सब कुछ
सबके लिए कर पाता है।
जो सोचता है सबके लिए
वो खुद के लिए कब जी पाता है।
ये नौकरीपेशा औरत है
जो अपनी मेहनतकशी से
सबके दिल में जगह कर लेती है।
ये एक ही ज़िंदगी में
कई ज़िंदगियाँ जी लेती है।