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Sulakshana Mishra

Abstract

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Sulakshana Mishra

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अधूरी दास्ताँ

अधूरी दास्ताँ

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आसमान की ख्वाहिश नहीं मुझे

न ऊँचाइयों का ख्वाब है।

बस अपने पाँव जमाने के लिए

मुझे मेरी ज़मीन की तलाश है।


मरुस्थल होती ज़िंदगी को

अपनी मरीचिका की तलाश है।

हैं कुछ अधूरे सपने मेरे भी

उन सपनों के पूरा होने की आस है।


यूँ आसानी से बुझ जाए

ऐसी कहाँ मेरी प्यास है।

किसी को हो न हो

मुझे खुद पर विश्वास है।


कदम उठाने से ही

कब मिलती है मंज़िल यहाँ ?

मंज़िल मिलती है जिनको,

उनके पाँवो के छाले

करते हैं उनके संघर्ष बयाँ।


कब यहाँ मिला है 

किसी को सबकुछ यहाँ

किसी को मिली उसके हिस्से की ज़मीन

किसी के हाथ फिसला उसका आसमान।


कब यहाँ पूरे हुए सबके अरमान

कब हर कहानी को मिला उसका अंजाम

रह ही जाती हैं ज़िंदगी में अक्सर

कुछ अधूरी दास्ताँ।


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