एक पाती तुम्हारे नाम की
एक पाती तुम्हारे नाम की
तपती हुई धूप में
तुम हो एक ओस की बून्द सी।
बिखरा हुआ सा हूँ मैं
पर तुम ही से
होता है पूरा मेरा वजूद भी।
कभी कभी लगती हो तुम
एक गरम चाय की प्याली सी।
कुछ तो बात है तुम में ख़ास
कुछ तो अदा है तुम्हारी निराली सी।
वो आँखों से मुस्कुराना तुम्हारा
और मुस्कुराहटों में फ़िक्र को उड़ाना।
क्यूँ नहीं सीख पाया मैं कभी
ये हुनर तुम्हारे ?
बीत गए जीवन के न जाने कितने
स्वर्णिम बरस साथ हमारे।
जीवन की साँझ जो आयी
आँखों में एक चमक सी लायी।
खुल गयी पोटली यादों की
और बह चली सरिता
खट्टी मीठी बातों की।
बीत गया ये जीवन सारा
पर व्यक्त कर न पाया
मैं कभी आभार तुम्हारा।
आज लिखने बैठा हूँ
एक पाती तुम्हारे नाम की।
पर शब्दों में कैसे बाँध दूँ मैं
मैं परिधि जीवन के हर मुकाम की ?
अद्भुत सा रिश्ता होता है
पति और पत्नी का।
पूरे होते हैं दोनों एक दूसरे से
एक के बिना
रहता दूजा अधूरा सा।
