कविता - पिया परदेश में है ए सखी
कविता - पिया परदेश में है ए सखी


पिया परदेश में है ए सखी
उनको मनाऊँगी
न वे आए तो उनके बिन
न इक दीपक जलाऊंगी
उन्हें यह क्या पता कि
हमने कैसे दिन गुजारे हें
की उनकी याद में व्याकुल
हुए आँसू बहाए हैं
दिवाली आ गई आ जाओ
न तुमको सताऊंगी
पिया परदेश में है
ए सखी उनको मनाऊँगी
गए व्यापार करने को वे
अपना छोड़कर घर द्वार
कबूतर ले गया है खत
कि वे बैठे हुए उस पार
में वादा करती हूँ साजन
न अब तुमको सताऊंगी
पिया परदेश में है ए सखी
उनको मनाऊँगी।
कटी है रात विरहन में
सपन उस पर भी देखें है
बताऊं कैसे उनको उनके
बिन हम कितना तड़पे है
मेरा मन बार बार
द्वार की साँकल बजाता है
मेरी बैचेनी का किस्सा
उन्हें सपनों में आता है
मेरा दिल रो रहा है
फिर भी मै उनको हँसाउंगी
पिया परदेश में है ए सखी
उनको मनाऊँगी
तुम्हे यह क्या पता
हिचकी हमारी कैसे रुकती है
सजल आँखों से अश्रु धार
बालम कितनी बहती है
विरह की आग में झुलसे है
अब हमको न तड़पाओ
अरज है तुमसे ओ सरताज
अपने घर चले आओ
करो विश्वास मेरा
में तुम्हे दिल मे बसाऊंगी बसाऊंगी
पिया परदेश में है ए सखी
उनको मनाऊँगी।
नहीं आए तो में तुम बिन
नहीं दीपक जलाऊँगी
पिया परदेश में है ए सखी
उनको मनाऊँगी।