कविता
कविता
हाँ में नारी हूँ
मगर मैंने
यह कभी नहीं कहा
कि मैं सब पर भारी हूँ
हां मुझे गर्व है में नारी हूँ
मेरा बचपन
माता पिता के साये में बिता है
सभी मुझसे जब तब
कहते थे यह मत करो
वह मत करो
मगर मेरे मन ने कहा
बेकार मत डरो सब करो
मुझे जो संस्कार घर से मिले
उसी अमूल्य निधि को
आँचल में संजोए
ससुराल की देहरी पर कदम रखा
सास ससुर और पति ने
कभी कुछ नहीं कहा
किन्तु
इशारों में सब कुछ समझा दिया
मेरे पैरो में मर्यादा की
जंजीर सदैव बंधी रही
तब भी जब मैं माँ बनी
और तब भी
जब बेटी की माँ बनी
मुझे बचपन से
यह बताया गया था कि
महिलाओं में अलौकिक
शक्ति होती है
जो दिखती नहीं
मगर होती जरूर है
मैंने भी मान लिया
क्योंकि दिन रात बिना थके
बिना रुके हमसे
काम जो लेना होता है
हाँ यह जरूर हुआ
कि जब जब पुरुष ने
अपने अहंकार के कारण
नारी को अबला समझा
तब तब नारी ने
दुर्गा का रूप दिखाकर
उसे नारी शक्ति से
परिचित करा दिया
क्योंकि
भारतीय नारी
किसी भी परिस्थिति में
हथियार नहीं डालती
तब भी जब उसे
अधिकारों से लड़ना पड़े
और तब भी
जब उसकी
अस्मिता पर बेजा प्रश्न उठे
मगर तब
वह अपने पैरो में बंधी
जंजीर को तोड़कर
रणचंडी बन जाती है
माँ दुर्गा और काली की तरह।
और गर्व से कहती है
हाँ में आत्म निर्भर
भारतीय नारी हूँ।