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Dr Jogender Singh(jogi)

Abstract

4.5  

Dr Jogender Singh(jogi)

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मुट्ठी भर रेत

मुट्ठी भर रेत

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मुट्ठी भर रेत से ,इक महल बनाने की ख्वाहिश , 

कुछ अलमारियों में ग़म को क़ैद कर ,

चाबी समंदर में, फेंक आने की ख्वाहिश ।

बड़ा कमरा , दालान बड़ा सा ।

बगीचा खूबसूरत , फूलों से भरा ।

ख़ुशियों को फूलदान में सजाऊँगा ।

हाँ ! मैं मुट्ठी भर रेत से इक मकान बनाऊँगा ।


प्रेम का रस टपकाता , एक नल लगवाऊँगा ।

द्वेष किसी का किसी से नहीं होगा ,

नीवँ मैं , प्रेम से भरवाऊँगा ।

 न जाति बन्धन , न धर्म की दीवार होगी ।

मानवता की नेम प्लेट लगवाऊँगा ।

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बस , मिल जाये मुट्ठी भर रेत , 

 जो न हो ,खून से सनी किसी के ,

 हो बिन दाग द्वेष की ।

उस मुट्ठी भर रेत से ही ,प्यार की चारदीवारी बनाऊँगा ।


छोटे भी रख सकें , खुल कर जज़्बात अपने ,

बुजुर्ग भी ब्यान कर सकें , हालात अपने । 

गूँगी बन न रहे , लक्ष्मी घर की ,

बेटी हो किसी की भी ,

हो इज़्ज़त सबकी । 

प्रेम की रोशनी हो आर पार जिसके ,

वो रोशनदान भी बनवाऊँगा । 

उस मुट्ठी भर रेत से मैं ,

एक मकान आलीशान बनवाऊँगा । 



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