मुट्ठी भर रेत
मुट्ठी भर रेत


मुट्ठी भर रेत से ,इक महल बनाने की ख्वाहिश ,
कुछ अलमारियों में ग़म को क़ैद कर ,
चाबी समंदर में, फेंक आने की ख्वाहिश ।
बड़ा कमरा , दालान बड़ा सा ।
बगीचा खूबसूरत , फूलों से भरा ।
ख़ुशियों को फूलदान में सजाऊँगा ।
हाँ ! मैं मुट्ठी भर रेत से इक मकान बनाऊँगा ।
प्रेम का रस टपकाता , एक नल लगवाऊँगा ।
द्वेष किसी का किसी से नहीं होगा ,
नीवँ मैं , प्रेम से भरवाऊँगा ।
न जाति बन्धन , न धर्म की दीवार होगी ।
मानवता की नेम प्लेट लगवाऊँगा ।
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बस , मिल जाये मुट्ठी भर रेत ,
जो न हो ,खून से सनी किसी के ,
हो बिन दाग द्वेष की ।
उस मुट्ठी भर रेत से ही ,प्यार की चारदीवारी बनाऊँगा ।
छोटे भी रख सकें , खुल कर जज़्बात अपने ,
बुजुर्ग भी ब्यान कर सकें , हालात अपने ।
गूँगी बन न रहे , लक्ष्मी घर की ,
बेटी हो किसी की भी ,
हो इज़्ज़त सबकी ।
प्रेम की रोशनी हो आर पार जिसके ,
वो रोशनदान भी बनवाऊँगा ।
उस मुट्ठी भर रेत से मैं ,
एक मकान आलीशान बनवाऊँगा ।