कवि मन मेरा जागा फिर से
कवि मन मेरा जागा फिर से
कवि के अंतिम दर्शन पाकर,
कवि मन मेरा जाएगा फिर से,
बोल उठा झकझोर उठा,
एक शांत लहर में शोर उठा,
आतुर व्याकुल मचल रहा था,
जो खोया फ़िर से सम्भल रहा था,
लगा ढूँढने सच्चाई को,
अन्धकार की परछाई को,
सारे बंधन तोड़ पुराने,
आज़ादी के नए फ़साने,
चला था गढने फिर से सपने,
ग़ैरों में फिर ढूंढें अपने,
इसी खेल में भागा फ़िर से,
कवि मन मेरा जागा फ़िर से।
मैंने आतुर मन से पूछा,
काम नहीं क्या इसको दूजा,
कई हताशा और कुछ आशा,
लिए लिए फिरता रहता है,
नव भविष्य नव गीत बुने,
उन गीतों में उलझा रहता है,
कई मुखौटों के अन्दर की,
दबी दबी सी सच्चाई को,
देख के रोता है भीड़ में,
साथ खोजती तन्हाई को,
टूट चुका था काव्य बंध जो,
बदल चुका था काव्य छंद जो,
क्यों जोड़ा वो धागा फ़िर से,
कवि मन मेरा जागा फ़िर से।
मन आतुर चतुराई से प्रत्युत,
हंसा कुटिल मुस्कान में,
कवि मन है स्वच्छंद रहा है,
कहाँ फंसा व्यवधान में,
जब जब देखा इसने जग में,
ममता रोती स्नेह बिलखता है,
तब तब भूल के बंधन सारे,
कविता ये मन कहता है,
सोया कब जो आज जागेगा,
स्वच्छंद सदा है कहाँ बंधेगा,
जब जब पीढ़ी मांग करेगी,
कवि मन है नव गीत कहेगा,
टूटेगा ना धागा फ़िर से,
कवि मन मेरा जागा फ़िर से।