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Dr Mohsin Khan

Abstract

4.5  

Dr Mohsin Khan

Abstract

ग़ज़ल

ग़ज़ल

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करके क़त्ल यहाँ वो बेगुनाह बने हुए हैं।

इन फ़रिश्तों के हाथ ख़ून से सने हुए हैं।


तुम्हारा दावा था ये इल्म रौशनी लाएगा,

मुझे तो लगता है अँधेरे और घने हुए हैं।


रेज़ा-रेज़ा होने लगा अब एतबार अपना,

इस दौर के लोग क्यों ऐसे अनमने हुए हैं।


न पूछ किसने साथ दिया मुसीबत में मेरा,

ग़ैर तो ग़ैर हैं, अपने कब अपने हुए हैं।


आँधियाँ ने कइयों को उखाड़ा जड़ों से,

हम अब भी 'तनहा' सामने तने हुए हैं।



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