अधूरा इश्क़
अधूरा इश्क़
वो माह था सितंबर, जब आई थी घर के अंदर।
बारिश भी हुई थी, पनाह तुझे दी थी।
जज़्बात की बरसात में, बोल तेरे खुले थे।
वो बोल भी निराले, गोश को छुए थे।
मस्त हो गया था, मैं बोल तेरे सुनकर।
वो शरमाई हुई थी, पर नन्ही परी थी।
वो दिन याद आए, जब आ गया नवंबर।
वो स्वांग भी सुहाना, जब रचा गया स्वयंवर
हो गया स्वयंवर, तू हो गई है मेरी।
उठूं जब सबेरे, केश खुले तेरे।
ये दृश्य भी सुहाना, निगाहे मेरी लुभाता है।
घुंघराले केशों में, तेरा मुखड़ा शोर मचाता है।
वो नैन भी ऐसे थे, जैसे नोंक हो खंजर।
वो होंठ खिले पंखुड़ी से, जब आए हवा का झंकार।
तेरा बदन है ऐसा, जैसे रस मिलाई।
आना चाहूं पास मैं तेरे, पर कैसी ये जुदाई।
जब आया था ख्याल मुझे, वो वक्त भी पुराना था ।
उस लड़कपन के ख्याल से मेरा, दिल टूट टूट बिखरा था।
अब आ गया हूं होश में, मैं कभी न करूं मोहब्बत।
जला दिया है रूह को, आ गई है कयामत।
लूं सांस जब आखिरी, रहे यही तमन्ना।
आंचल में यूं सुलाले, तगाफुल जरा भी ना करना।
लगा ले शरद को तू अपने गले से
उसे भी भिगो दे, तू अश्कों से अपने।।