प्रेम और तुम
प्रेम और तुम
मैं प्रेम में था, बेसुध था
वो सचेत थी, वो पूरे होश में रहकर
देख रही थी मुझे प्रेम में डूबते हुए
सड़क पार करते वक़्त
मैं बस उसे देख रहा था
और वो मेरा हाथ थामे ,आने-जाने वाले साधनों
और लोगों की नजर से बचाती हुई
ले जा रही थी जैसे – सही और गलत के पार
किसी और दुनिया में
हम भाग सकते थे, कर सकते थे विद्रोह
मगर हमने चुना नहीं,स्वीकार किया
जिम्मेदारियां निभाते हुए जिया प्रेम,
जो प्रेम उगा था भीतर
हमनें उसे बांटा दुनिया के साथ
जीवन के तेज बहाव में
कल्पनाएँ बह सकती थी स्मृतियाँ नहीं,
हमनें पाने से ज़्यादा
ख़ुद को एक-दूसरे में खोना स्वीकार किया
हमने प्रेम में ईश्वर को नहीं खोजा
बस एक-दूजे का नाम लिया
और हमारे हिस्से का ईश्वर मुस्कुराने लगा।