STORYMIRROR

Vinay Singh

Inspirational Others

3  

Vinay Singh

Inspirational Others

समाज की विडंबना

समाज की विडंबना

1 min
248

जीवन के साथ समाज में,

पैदा हुई हैं विकृतियां,

अपने अपने सुविधा में,

मिल चुकी इन्हें हैं स्वीकृतियाँ,

इन्हीं तमाम प्रवंचना से,

पैदा हुई है राजनीति?

समाज की नींव तक हिला चुकी हैं,

विशाल पाप-मय ये आकृति,

ज्ञानी जन के जेहन में बस,

समाज सुधारने की अविरलता,


जातिगत विद्वेषों से

बचा सके है आतुरता?

पर कौन क्षितिज पे है सशक्त,

रावन, कंसों को सबक सिखाये,

हार चुके हैं संत, देव सब,

हम चुप रह बस जान बचायें??

समाज अंधेरा पसन्द

करता है, नेताओं माफियाओं

और सबलों की भाषा

उसे भाती है, ज्ञानियों

बुद्धिजीवियों की कब उसे

याद आती है??


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Inspirational