गांव बनाम शहर
गांव बनाम शहर
हमारी पाठ्य पुस्तक में
एक कविता थी
मेरा गांव।
मैम ने जिस दिन हमें
यह कविता सुनाई
हम तो गांव की खूबसूरती के कायल हो गए।
हम ठहरी शहरी लड़कियां आधुनिक परिवेश में जन्मी,
पली, बढ़ी, पढ़ी
गांव के रहन-सहन
रीति रिवाज़, खान पान
से अनभिज्ञ।
सुंदर सा गांव
चारों तरफ खेत
खेत में हल जोतते किसान।
पेड़ की छाया तले
मक्की की रोटी
सरसों का साग
चाटी की लस्सी लिए
किसान की पत्नी
पति की प्रतीक्षा करते हुए।
फलों से लदे पेड़।
गांव के बीचों बीच एक तालाब
जो वर्षा ऋतु में
लबालब भर जाता।
गांव के किनारे एक कुआं
जिसका जल
इतना साफ सुथरा व मीठा
कि अमृत को भी मात दे।
कच्चे मकान
गोबर से पुते हुए
बड़े-बड़े आंगन
आंगन में खेलते खिलखिलाते
नन्हे मुन्ने बच्चे।
वृक्षों पर झूले
झूला झूलती छोटी छोटी बच्चियां गुनगुनाती
'साडा चिड़िया दा चंबा वे
बाबुल असां उड़ जाना'
हम सब कविता के
एक एक शब्द को
आत्मसात कर रहे थे
आनंद ले रहे थे।
कल्पना में गांव के
हर कोने में घूम कर।
तन्द्रा तब टूटी
जब पूछा गया
किस-किस ने गांव देखा है।
एक भी हाथ खड़ा नहीं था।
मैम ने कहा, कभी अवसर मिले ज़रूर घूमना, अच्छा लगेगा।
अगले दिन स्कूल में छुट्टी थी
मां से मन की इच्छा ज़ाहिर की
मां ने मोहल्ले की
चार पांच लेडीज़ को कह दिया
मैंने दो चार सहेलियों को।
एक छोटा सा ग्रुप चल पड़ा
गांव के दृश्य का
लुत्फ लेने।
मेरी सहेलियां
मेरा मज़ाक उड़ा रही थीं
क्या होगा गाँव में
गन्दगी भरे रास्ते
टूटे फूटे मकान
अनपढ़ लोग
हमारी छुट्टी खराब कर दी।
'नो कमेंटस' मैंने प्रतिक्रिया दी।
'अभी इन्तज़ार करो'
गाँव मॉडल टाउन से महज़
एक मील की दूरी पर था
नहर के उस पार।
कुछ लेडीज़ ने
गाँव में नए चेहरे देखे
हमारे पास आ गईं
जिज्ञासा वश।
हमने बताया
हम गाँव घूमने आए हैं।
'धन भाग साडे' ठेठ पंजाबी में
उन्होंने हमारा स्वागत किया
वे हमें ऐसे मिलीं
जैसे वर्षों से बिछड़ा
कोई अपना मिलता है।
'मैं आपको ले चलती हूं'
उन में से एक ने कहा
अपने घर और पूरा गांव घुमाने।
नाम पूछने पर
अपना नाम बताया 'बानो'।
उसने अपना काम समेटा और
चल पड़ी हमारे साथ।
गांव का हर दृश्य वैसा ही था
जैसा कविता में वर्णित था।
मार्च का महीना था
गेहूं की फसल खेतों में खड़ी थी थोड़ी गोल्डन सी भी हो गई थी।
गेहूं की चपाती तो प्रतिदिन खाते हैं पर खेतों में खड़ी गेहूं का
नज़ारा ही कुछ और था।
सोचती हूं
गेहूँ से रोटी तक का सफर
कितना कठिन व खोजों भरा रहा होगा।
बानो हमें अपने घर ले गई।
खूब बड़ा आंगन,
आंगन में एक तरफ
चूल्हा, हारा, तंदूर,
सूखी लकड़ियों का गट्ठर,
गोबर के उपलों का ढेर।
दूसरी तरफ पशु चारा खा रहे थे
कुछ गाय जुगाली कर रही थीं।
चारपाई पर बैठे बच्चे
होम टास्क कर रहे थे,
दूसरी चारपाई पर एक
बुजुर्ग लेटा था
शायद बीमार था।
बानो ने हमसे पूछे बिना
दूध गर्म किया और
एक एक गिलास
सब को पेश किया
साथ में कुछ मीठा, नमकीन भी।
अब बानो ने
हमें सारा घर दिखाया
सभी कमरे साफ सुथरे।
बेड पर दूधिया चादर
बड़े बड़े ट्रंक, अलमारियां।
एक बड़ी पेटी की ओर
इशारा कर बोली
यह मेरे मायके से आई है
दहेज में।
ऐसी पेटी किसी के पास नहीं
सारे गाँव में।
कहते कहते वह
भाव विभोर सी हो गई।
चार घंटे बीत गए
पता ही नहीं चला।
मैं और मेरी सखियाँ हैरान थी।
एक शहरी कल्चर था
घण्टी बजने पर
किसी अनजान व्यक्ति को
दरवाजा खोलना ही नहीं
मैजिक आई से देखे बिना।
देख लिया, तो बाहर से ही टरका दिया।
किसी को अंदर लाना ही
पड़ जाए
पानी का गिलास दिया और पूछा चाय पीएंगे?
दूसरों को
अपना बनाने की कला सीखनी हो
अतिथि का स्वागत व आवभगत करनी हो
मन के साफ सुथरे, भोले भाले
इन ग्रामीण लोगों से
सीखना चाहिए।
सच ही कहा गया है
असली भारत तो
गाँव में बसता है।
