"बोझ" (गाथागीत, कथागीत)
"बोझ" (गाथागीत, कथागीत)


सागर की गहराई से भी अधिक
सहनशीलता उसके अंदर है....
हुनर पाया है उसने एक ऐसा,
पलकों पर भी रखती वो समंदर है....
देखो सारी जिम्मेदारियों को उसने अपने जुड़े में बांधा है....
पैरों में पायल है, मगर घुंघरुओं को बंधनों ने जकड़ा है....
रखती है पाई - पाई का हिसाब, मगर रहता
खुद की उम्र का भी नहीं है जिसे होश....
नाम जिसका रखा है दुनिया ने बोझ.....
नाम जिसका रखा है दुनिया ने बोझ.....
कभी किसी की बेटी है....
तो कभी किसी की पत्नी है....
कभी किसी की माँ है....
तो कभी किसी की सास है....
अनेक है, अलौकिक है, अनंत है उसके रूप....
सब को आँचल की छाया में बिठाकर, खुद सहती है धूप....
समझ लेती है सभी को अपने ऐसा,
एक यही भी है उसमें दोष....
नाम जिसका रखा है दुनिया ने बोझ.....
नाम जिसका रखा है दुनिया ने बोझ.....
कत्ल कर देती है.... अपनी सारी इच्छाओं का,
लग जाती है अपनी सन्तान की ख्वाहिशें पूरी करने में....
कह नहीं पाती अपने मन की बात कभी औरों के सामने,
अंदर ही अंदर घुट जाती है,
छोड़ती नहीं कोई कमी सहने में....
आगे अंजाम इसका क्या होगा, पता होकर भी
छुपा कर रखा है ओर एक बोझ अपनी कोख में....
जमाने से अलग रखती है वो अपनी सोच....
नाम जिसका रखा है दुनिया ने बोझ.....
नाम जिसका रखा है दुनिया ने बोझ.....
रचयिता ने बड़ी अजीब सी रचीं है प्रीत....
कहा होती है अब बहू को बेटी बनाने की रीत....
हार कर खुद से, जो परिवार का मन लेती है जीत....
ज्यादा कुछ नहीं, चाहें थोड़ा सम्मान बस, ऐसा हो मनमीत....
एक घर ने नाम रखा है, ये तो परायी है....
तो दूजा घर कहता है ये तो पराये घर से आयी है....
खामोश नदियां सी बह रही है....
अपने मन को हमेशा रखती है साफ....
धोना हो तो धौ लो तुम अपने सारे पाप....
जब प्रलय करेगी, तो आ जायेगी समुद्र में मौज....
नाम जिसका रखा है दुनिया ने बोझ.....
नाम जिसका रखा है दुनिया ने बोझ.....