कौन कहता है
कौन कहता है
कविता
कौन कहता है
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कौन कहता है कि गुलशन की जमीं उर्वर नहीं,
कौन कहता है कि मेरा ये वतन कमजोर है।
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कौन कहता है कि मेरे देश का गौरव गिरा है।
कौन कहता है वतन मेरा अभावों से घिरा है।।
विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र मेरा देश है ।
था कभी पर अब, नहीं परतंत्र मेरा देश है।।
रंक बन जाता है राजा वोटरों के वोट से ।
महल धाराशाही होता झोंपड़ी की चोंट से।।
हमने इस अनमोल थातीको संभाला आजतक।
और हर व्यक्तिको इस सांचेमें ढाला आजतक।।
विश्व में निष्पक्ष निर्वाचन के हम नायक बने ,
कौन कहता है हमारा ये चलन कमजोर है।
कौन कहता है कि गुलशन की जमीं उर्वरनहीं,
कौन कहता है कि मेरा ये वतन कमजोर।।
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है नहीं शर्मिंदा हम अपने विगत के सामने ।
कद नहीं छोटा किया है अपने कद के सामने।।
आज भी इंसानियत की राह के रहबर हैं हम ।
आज भी आध्यात्मिकता में बहुत ऊपर है हम।।
माँ की ममता और पिताका प्यार कायम आज है।
अपनी संतानों का सदव्यवहार कायम आज है।।
गीता के दर्शन की रामायण की इज्जत आज है।
बाईबिल से प्यार ,कुरआं से मोहब्बत आज है।।
रक्त रंजित तब मिला था देश अब खुशहाल है,
कौन कहता है हमारा ये अमन कमजोर है।
कौन कहता है कि गुलशन की जमीं उर्वर नहीं,
कौन कहता है की मेरा ये वतन कमजोर है।।
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देश के हर दीन के, हर दर्द को देकर सहारा ।
कर्ज जो सदियों से, न उतरा कभी हमने उतारा।।
दे के आरक्षण उन्हें हर जगह स्थापित किया है।
काम अग्रिमपंक्ति में लाने का मानवहित किया है।।
लोक सेवाओं में उनकी हर जगह मौजूदगी है।
ये बताती है कि उनकी, सोई किस्मत अब जगी है।।
साहूकारों के श्रृणो से मुक्त उनको कर दिए हैं।
बंधुआ मजदूरों को भूधर बना गम हर लिए हैं।।
योजनाएं आज भी अनगिन विचाराधीन हैं,
कौन कहता है हमारा ये हवन कमजोर है।
कौन कहता है कि गुलशन की जमीं उर्वर नहीं,
कौन कहता है कि मेरा ये वतन कमजोर हैं।।
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हैं नहीं कमजोर हम, कहते हैं जो कमजोर हैं।
व्यर्थ की अफवाह फैलाते हैं करते शौर हैं।।
देश के दुश्मन हैं ,करते देश को बदनाम जो।
बेवफा हैं धूर्त हैं करते नहीं सम्मान जो।।
है कहीं मैला अगर, तो धूल डाली जाएगी।,
गंदगी नादान बन कर क्या उछाली जाएगी।।
रोग है तो रोग का उपचार भी होगा जरूर।
कौन है जो देश पर अपने नहीं करता गुरूर।।
स्वप्न देखेंगे तभी तो मंजिलों को पाएंगे,
कौन कहता है हमारा यह कथन कमजोर है।
कौन कहता है कि गुलशन की जमीं उर्वर नहीं,
कौन कहता है कि मेरा ये वतन कमजोर है।।
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मान अबलाओं को देकर के बनाया है निडर।
सिरझुकाए कोई अबला क्या कहीं आती नजर।।
वन्य जीवों को लगाया है गले ,माना है धर्म।
और पशुपालक बने हम धर्म का समझा है मर्म।।
पानी पहुंचाया है घर घर गाँव हो या हो शहर।
नहरें छूती है पहुँचकर अब मरुस्थल के अधर।।
क्रांति ये भी है, परिवर्तन हमारे दम से है ।
अन्न की उपयोगिता कम क्या किसीभी बम से है।।
हर नए सूरज की किरणें सबक देती है नया,
कौन कहता है हमारा ये गगन कमजोर है।
कौन कहता है कि गुलशन की जमीं उर्वर नहीं,
कौन कहता है कि मेरा ये वतन कमजोर है।।
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बालकों के वास्ते देखो बने हैं नव विधान।
ताकि उनकी हो सुरक्षा और फैशन से निदान।।
काम के घंटे प्रसूति या हो वेतन का प्रदान।
छुट्टियां, मजदूरी ,छटनी के लिए है प्रावधान।।
मालिकों के काम में अब भागिता मजदूर की।,
और श्रमसंघों ने उनकी दिक्कतें सब दूर की।।
है समन्वय आज पूंजी और श्रम में इस तरह।
दूध में पानी मिला हो एक जग में जिस तरह।।
शक्ति श्रम की बढ़ गई "अनंत" जागा स्वाभिमान,
कौन कहता है हमारा आकलन कमजोर है।
कौन कहता है कि गुलशन की जमीं उर्वर नहीं,
कौन कहता है कि मेरा ये वतन कमजोर है।।
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अख्तर अली शाह "अनंत" नीमच
9893788338
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