DINESH KUMAR KEER

Action Fantasy

4.5  

DINESH KUMAR KEER

Action Fantasy

बहनें

बहनें

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शादीशुदा चचेरी, ममेरी, मौसेरी बहनें नहीं मिल पाती, एक दूसरे से बरसों ।

ढेरों तर्क है ना मिल पाने के, एक बार माँ के घर रहने जाना भला, समझ आता है

लेकिन अब चचेरी ममेरी, के घर जाओगी तो गृहस्थी कौन सम्हालेगा ?

बहन सगी भी हो तो जाओ ऐसे फुफेरी मौसेरी के घर कौन लम्बा सफर कर रहने, मिलने जाता है ?

शादी बाद कौन इतनी दूर तक निभाता है ?

ये फुफेरी, ममेरी बहने खुद भी डरती है बुलाने से  

पति बहन के बच्चों को कही घुमाने नहीं ले गए तो ...?

वैसे भी सास ससुर को मायके के सगे पसन्द नहीं

फिर ये तो फुफेरी, ममेरी ठहरी...! 


सब सोच वो उदास चुप हो जाती है

लेकिन बहनों को भुलाना आसान नहीं होता ।


वो बहनें है जिनके जिक्र बिना बचपन अधूरा है,

जिनके किस्सों बिना जवानी अधूरी है ।


एक जमाना था जब हर तीज त्यौहार पर मुलाकातें, 

एक दूसरे के कपड़े, सैंडल, झुमके उधार पहनती। 

मेहंदी लगती हाथों में संग संग,

 एक दूसरे की ढंग ढंग की चोटियाँ गुथती। 

सड़क से गुजरते चाट के ठेले रोकती,

मैचिंग चुन्नियों के लिए दुकान दुकान साथ डोलती। 

दोपहर भर, दुनिया भर के किस्से और

पास पड़ोस की कहानियाँ बताती ।

कभी किसी की नकलें उतारती,

कभी किसी सी शक्लें बनाती ।


जाने कितने परब, हल्दी, माँगर माटी

संग संग चुहल करती, नेग माँगती ।

संग दिन गुजारने हुलसती और

एक खाट में पूरी पूरी रात करती खुसर पुसर और ठिठोली ।

बहन की शादी लगने पर मारे खुशी

आसमान सर पर उठा लेती ।

कभी जीजा का नाम ले छेड़ती तो 

कभी होने वाले देवर के नाम चुहल करती है ।

जयमाला में बढ़ चढ़ खड़ी रहती 

सजी खुद भी दुल्हन सी और

जूता चुरा घण्टों हुज्जत करती नेग पर ।

विदा बखत गले लग खूब रोती,

खूब रोती संगवारी बहन ।

जैसे छाती तोड़ कर जिज्जी

ले जा रही आधा हिस्सा अपने सासरे ।

बस कि बहन की मांग में पड़ते ही सिंदूर 

इन बहनों का किस्सा खत्म हो जाता, ..

पर्दा गिर जाता धड़कते जीवन दृश्य पर ।

ये सिंदूर रेखा बन जाती है सीमा समाप्ति की रेखा ।


मिलती है ये शादीशुदा चचेरी, ममेरी, मौसेरी बहनें

बरसों बाद पीहर के किसी के बर बिहाव में ।

अपने बच्चों की परीक्षा, सास के ऑपरेशन,  

ननद की डिलवरी की बाधाएं लाँघती

घुसती है सूटकेस, बैग थामें हरे मंडप तले ..।.

लगती है खिलखिलाती गले,

गदराए बदन, छोटे बच्चों सहित ।

इतने दिनों से रिश्तों को ना मिल पाई गर्मी से

 जमी बर्फ पिघलने लगती है अचानक ।

 अपने सूटकेस में लेकर वो आती 

खोया बचपन, भूली तरुणाई, अल्हड़ कुंवारे दिन ।

बरसों पहले की वो लड़की आज जनवासे में

हलकान कभी अपने गिरते पल्ले 

तो कभी रोते बच्चे सम्हलाती ।

आँखों आँखों में तौलती है एक दूसरे के हालात और

करती है बातें दिल खोलकर पुरानी ।

बीत जाते है शादी के ये चार दिन नेग चार, बन्ना बन्नी में ।


फिर एक बार बरसों ना मिलने लेती है बिदा,

 मिलती है गले देर तक बिना एक शब्द बोले ।

उस खामोश आलिंगन का गर्म स्पर्श बताता कि

मैं आजतक नही भूल पाई

रतजगों वाली वो ठिठोलियाँ ।

नम पलकों से लिपटी छुवन कहती कि

 याद बहुत करती हूँ उन बेपर्दा, 

दिल से दिल तक बातों को ।

लिपटी हुई चुप सुनती है बिछड़ती बहनें 

एक दूसरे की धड़कन 

जो बताती है कि मैं तुम्हें बहुत, बहुत प्यार करती हूं 

बहन, सहेली, माँ, सगे सा लेकिन

मिल नहीं पाती हूँ क्योंकि

हम एक पेट की जाए बहनें नहीं ...।


एक उम्र बाद, ....गुजरी उम्र बहुत पुकारती है...।

लड़कियों को ठीहा बदलने के बाद गुजरी उम्र,

चचेरे, ममेरे, मौसेरे, फुफेरे को भूलना होता है ।


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