भटका जीवन
भटका जीवन
मैं लिखता हूं, मिटाता हूं।
मैं सोच में पड़ जाता हूं।
कुछ समझ में नहीं आता।
किसके बारे में लिख जाता।
आत्मा कुछ बोलती ही नहीं।
कलम कुछ लिखती ही नहीं।
मैं क्या करूं कहां जाऊं।
रास्ता दिखता ही नहीं।
मैं अंधेरा से बाते कर जाता हूं।
मैं लिखता हूं, मिटाता हूं।
दुर्धर है ये शब्द कैसे पूरा करूं मैंं पन्ने को।
जैसे लगता हो अविद्या हूं, कैसे संभालता इस पंक्तियों को।
कुछ सुधि होता है मुझे बचपन की यादें।
छोड़ कर चला जाता हूं, इस पुस्तक को नहीं कर पाते फरियादे।
बहुत रिते है इन रेखाओं में, पर याद नहीं आता।
ऊबता है मेरा मन, विष पी लेने का जी करता।
कभी कभी आ जाता हैं, तीव्र गति वाला छंद,
बड़ी कठिनाई होती है।
लेखनी रुकती नहीं है, स्याही खत्म होती हैं।
फिर भी लिखने का हां हां भर जाता हूं।
मैं लिखता हूं, मिटाता हूं।
जब आते हैं नवल रस।
सुखमय होती हैं मेरी सांस।
चंचल स्वभाव है मन मेरा, कहीं भी चला जाता हैं।
भूतिया पाने को कुछ भी कर जाता है।
किताबो जैसी जिंदगी है मेरी।
कभी पढ़ाती है, कभी कर लेती हैं ख़ुद की तैयारी।
अभी दूर है मंजिल और जगह।
कभी मुझे क्रोध आता है, कभी मैं दुःख में आंसू पी लेता हूं।
मैं लिखता हूं, मिटाता हूं।
मेरा मन करे मैंं कुछ दिन ओर लिखूं,
इस कोरे कागज पर।
अगर कभी मुझे रोशनी न मिले लिखने पर।
मैं रोशनी पा सकता हूं रेशमी विभा पर।
उत्ताल आए हमारे जीवन में या फिर पवन के झोंके।
मैं लिखना बंद नहीं करूंगा, चाहे मुझे मिले न मौके।
मेरे जिंदगी में घिरा है, खल की परछाई।
कैसे मिटाऊं किस प्रकाश को लाऊं।
भटक जाता हैं जीवन मेरा, बन जाता है हरजाई।
मिटाऊं कैसे इस रोग को,
कोई दवा मिलती ही नहीं, मैं रो पड़ता हूं।
मैं लिखता हूं, मिटाता हूं।