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Krishna Bansal

Others

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Krishna Bansal

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मैं अब सोना चाहती हूं

मैं अब सोना चाहती हूं

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मैं अब सोना चाहती हूं 

स्थिर, मौन, निर्लिप्त व शान्त मन से।


संसार से मुट्ठी में 

जो भर सकती थी भर लिया 

झोली में जितना समा सकता था 

उसके अतिरिक्त भी भर लिया 

अब मैं मुट्ठी और झोली 

रीति कर सोना चाहती हूं 

स्थिर मौन निर्लिप्त व शान्त मन से।


बहुत उतार चढ़ाव देखे 

संघर्ष तनाव भी सहे

इससे पहले कि

कोई असहनीय स्थिति पैदा हो 

मैं अब सो जाना चाहती हूं

स्थिर, मौन, निर्लिप्त व शान्त मन से।


हर सुख दुख का साक्षी 

यह मेरा शरीर 

शक्ति विहीन होता जा रहा है 

ठंडक मेरे चारों ओर फैल रही है 

इससे पहले कि यह मुझे और परेशां करे 

मैं अब सो जाना चाहती हूं

स्थिर, मौन, निर्लिप्त व शान्त मन से।<

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मेरे दिमाग में अब कोई 

बोझ नहीं है 

मन शांत है 

तन शांत है

सभी ऋण 

मातृऋण, पितृऋण 

गुरुऋण, मित्र ऋण

प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप से

चुकता कर चुकी हूं

मैं अब सोना चाहती हूं 

स्थिर, मौन, निर्लिप्त व शान्त मन से


प्रकृति के हर रंग रुप का

आनंद लिया 

रिश्तों को सींचा भी 

निभाया भी 

दोस्ती की कद्र की 

बहुत हो गया, बस और नहीं 

मैं अब सोना चाहती हूं 

स्थिर, मौन, निर्लिप्त व शान्त मन से।


मैं नहीं जानती 

आगे क्या होगा

यकीनन

यहां का द्वार तो बन्द हो जाएगा

आगे कहां खुलेगा

यह कौतूहल तो बना रहेगा

पर मैं सो जाना चाहती हूं

स्थिर, मौन, निर्लिप्त व शान्त मन से।



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