शीर्षक: कुछ पल छिपा कर रखे थे
शीर्षक: कुछ पल छिपा कर रखे थे
माँ तुम्हारी बेटी ने कुछ पल छुपा रखे थे
तुम्हारे साथ बिताने को..
मैंने कुछ बातें छिपा रखी थी...
फुर्सत में तुमसे बताने को..
कुछ पैसे जमा किये थे....
तुम पर खर्च करने को..
माँ तुम्हारी बेटी ने कुछ पल छुपा रखे थे
तुम पर न जाने क्यों रुठ गई
तुम एक पंछी की तरह उड़ गयी...
तुम संग मेरे छोड़ सभी बातें..
तुम्हारे साथ सभी सिंचित पल~
मन की दीवारों पर सजाने को,,
माँ तुम्हारी बेटी ने कुछ पल छुपा रखे थे
तुम सदा मेरे पास रहोगी
किसी रोज तुम्हारे पास बैठूंगी...
तुम्हारे साथ खुल कर फिर हंसूँगी..
इत्मीनान के वो पल ढूंढ़ न सकी..
मन की ये बातें कर न सकी....
माँ तुम्हारी बेटी ने कुछ पल छुपा रखे थे
अब न जाने तुम कहाँ हो~
मेरे मन के द्वार पर रोज नये फूल खिलते हैं
तुम्हारी हंसी की तरह बेमौसम खिलते हैं..
इनका गुलदस्ता रोज बनाती हूँ.....
अपने सिरहाने लगाती हूँ ~
माँ तुम्हारी बेटी ने कुछ पल छुपा रखे थे
तुम्हारे मन सा ही गुनगुनाती हूँ...
तुम जैसी बन पाऊँ,
जीवन में तुम जैसे रंग भर पाऊँ ~
अब एक कोशिश रोज करती हूँ...
तुम्हारी तरह हर आने वाले त्योहारों तैयारी करती हूँ.
माँ तुम्हारी बेटी ने कुछ पल छुपा रखे थे
तुम्हारी किलकारी से मन गुंजित करती हूँ
तुम्हारे भजन भगवान को अर्पित करती हूँ..
माँ... तुम सी होने की कोशिश रोज करती हूँ!!
तुम सी बनने की कोशिश करती हूँ
तुम्हारा स्नेह बस चाहती हूँ।
