शीर्षक: जिंदगी की ढलती सांझ
शीर्षक: जिंदगी की ढलती सांझ
ढलती सांझ सी इस वृक्ष की जिंदगी
चारों और हरियाली भरा यौवन लिए
अपनी जिंदगी को जीने के लिए खड़े
पर इस बूढ़े वृक्ष की निगाहें ढूंढती हैं
आज अपना खोया हरियाला अतीत
वह समय जो इसने व्यतीत किया था
अपना समर्पण, अपने फल, फूल रूप में
बिसरी यादें आज कष्ट दे रही इसको
जो इसके समर्पण की याद दिला रहा है
सब कुछ अर्पण किया था उसने आज तक
दिखते हैं उसको धुंधले से व्यतीत किये पल
जब थे सब अपने नहीं था कोई पराया
पर इसके दिल का वहम आज खत्म हुआ
शायद अपना अहं ही था जिससे दुःखी हैं
कभी झुकने न दिया जिसने वो फल था इसका
जीवन भर दिया इसने अपने अंतिम क्षण तक
तभी तो पाषाणवत खड़ा रहा हैं दृढ़, अडिग सा
वक्त से भी लड़ता रहा अपना सर्वस्व देने को
पर आज जीवन के अंतिम पड़ाव पर भी
शायद किसी को अब नहीं रही इसकी जरूरत।
