घरौंदा
घरौंदा
देखे दो पंछी मैंने
घर के झरोखों के पास
लेकर बैठे थे जैसे
मन की एक अधूरी आस।
इशारों में कर रहे थे बातें
पंखों को फाड़ फड़ा रहे थे
शायद कुछ संकेत देकर
अपनी दास्तां सुना रहे थे।
एक डाल से दूसरी डाल
पात पात चुनकर लाए
सपनों का एक घरौंदा बनाए
बीत गए जाने कितने साल।
भूल गए हैं जाने किसी थी वह मीठी आवाज़
कुहू कुहू की मधुर बेला में
जब छेड़े थे संग कई साज़
फुदक फुदक कर झरोखे में बैठे
बयां कर रहे थे अपने जज़बात।
शाखाओं की जगह तारों ने ले ली
कब नष्ट हो गई धुएं में दमकती रोशनी सितारों की
बेबस हो गए हैं फूल सुहाने
मानो उम्र बीत गई बहारों की।
मानव उपकरणों द्वारा
जब देखी हत्या अपनो की
बिलखकर रोते पंछी बेचारे
मानो बली चढ़ रही सपनों की।
बसा रहा है संसार अपना
कुचलकर कई घरौंदों को
क्या शोभा देता है यह कुकर्म
हम उच्च श्रेणी के जीवों को।
अनदेखे अश्रु पुकार रहे
शायद बनाकर मुझे अपना खास
बेघर हुए जाने कितने घरों से
पधारे हैं आज मेरे आवास।
लेकर बैठे थे जैसे मन की
एक अधूरी सी आस।।
