वो अजनबी ना था
वो अजनबी ना था
एक थी राहें हमारी
कदम भी उठाए थे साथ में
वो अजनबी जो एक दूजे में ऐसे बंधे
की बिछड़ ना पाए फिर कभी
लफ़्ज़ों की दोस्ती ऐसी हुई
की लब भी कभी थके नहीं
हर एक शब्द घायल कर गए
दिल के सरगम ताल भी
दिन जो बातों में बीत रहे थे
रातें को काटे कटती नहीं थी
दिल के तार वो ऐसे जोड़ गए
की बहारों में मुलाकातें कहीं थी
तो कहीं जाम - ए - महफ़िल सजी थी
वो जो कभी ज़िन्दगी बन गए थे
कभी नज्म तो कभी बंदगी बन गए थे
आज वो शामिल हैं मुझमें, मेरी दुविधा में
की आज जो अजनबी है कैसे मेरे ग़ज़लों कि सादगी बन गए थे
शिकायत तो थी उन्हें हमसे
गिले शिकवे रंजिश थी उनकी
मुकद्दर में नहीं थे वो हमारे
ज़िन्दगी में आना साजिश थी उनकी
वो अजनबी जो अजनबी ना था, ऐसा ढाल गया खुद में
की बिछड़ ना पाए हम फिर कभी।।