दो जून की रोटी
दो जून की रोटी
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दो जून की रोटी को तरसते देखे गरीब,
बुरे मिलते बेचारों के , अपने ही नसीब,
अपने बदहाल पर बस जीना सीखा है,
पर वो मिलते हैं जहां में प्रभु के करीब।
बेरोजगारी बढ़ती जाए पूरे जग में अब,
नहीं मिल पाया है इसका भी तोड़ रब,
कब दो जून की रोटी मिले हर जन को,
खुशियां मिले हजार आशीष देगा तब।
रिक्शा से चलता घर,शान की हो सवारी,
दो जून की रोटी मिले,यहीं चिंता हमारी।
कोई कहता बंजारा,कोई कहे वक्त मारा,
सच्चाई बस एक,जिंदगी से नहीं है हारा।।
बस इतना बता मेरे दाता, गरीब क्यों बनाये,
मजदूरी तक नहीं मिले, ऐसे क्यों हैं रुलाये।
दो जून की रोटी को,तरसता है सारा परिवार,
हाथ दिये जब सबको, क्यों फिर वो रुलाये।
दो जून की रोटी को तरसता बढ़ा जाता है,
दिनभर गलियों में भीख मांगकर लाता है,
दाता ने जन्म दिया था, जीने को खुशियां,
पर निज हाल पर उसे खुद तरस आता है।
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