घेर लेने को जब भी बलाएं
घेर लेने को जब भी बलाएं
घेर लेने को जब भी बलाएँ आ गईं।
ढाल बनकर माँ की दुआएँ आ गईं।
हमें नौ माह तक अपने गर्भ में पाला।
कष्टों को सह कर हमें शरीर में ढाला।
हमने देखा है, तुम कभी रुकती नहीं।
बरसों बीत गए हैं तुम न थकती कहीं।
जब से हमने है अपना होश संभाला।
तुमने मशीन की तरह ख़ुद को ढाला।
गृहस्थी के कामों में तो जाती हो गुम।
बिना थकान के करती रहती हो तुम।
असहनीय पीड़ा से देह रहे तड़पती।
कोई पूछता भी तो इंकार हो करती।
अपनी पीड़ा किसी से नहीं कहती।
चुप रहकर सब अपने अंदर सहती।
अच्छे अच्छे पकवान भी हो पकाती।
आँच में अपने दोनों नैनों को जलाती।
हमें भरपेट खाना तुम हो खिलवाती।
सब को तृप्त और संतुष्ट हो करवाती।
ख़ुद बचा हुआ ही थोड़ा सा खा लेती।
उसमें ही तुम अपनी खुशी हो पा लेती।
हमें तुमने दिया है जितना लाड़ दुलार।
कोई रिश्ता नहीं दे सकता इतना प्यार।
(शुरू की दो पंक्तियाँ मशहूर शायर मुन्नवर राणा जी की हैं)