ज्ञान पिपासा
ज्ञान पिपासा
नहीं है सीमित विद्यार्थी जीवन विद्यालयों, विश्वविद्यालयों तक,
शिक्षा तो हो जाती है प्रारम्भ माँ के गर्भ से लेते ही श्वास प्रथम,
चलता रहता है विद्यार्थी जीवन बिना थमे बिना रूके अन्तिम श्वास तक,
हो गया था शिक्षित अभिमन्यु भेदने में चक्रव्यूह माँ के गर्भ में ही,
पाया ज्ञान श्री कृष्ण से भीष्म पितामह ने थे जब वे बाणो शय्या की पर।
बाल्यकाल में मिलता है ज्ञान परिवार के सदस्यों से,
जो हो चाहत ग्रहण करने का ज्ञान तो सीख सकतें हैं बड़े भी बालकों से,
होता रहता है अदान-प्रदान शिक्षा का दोनों पीढ़ियों के बीच,
ज्ञान बँधा नहीं होता उम्र की सीमा से न ही होती सीमा शिक्षक की।
मृत्युशय्या पर पड़े रावण ने दिया ज्ञान राजनीति का लक्ष्मण को।
हैं घिरे हुए चहूँ ओर से हम शिंक्षकों से है आवश्यकता पहचानने की,
देखो न उस फल के वृक्ष को है लदा हुआ जो फलों से, स्वार्थ रहित,
पशु पक्षी मानव ले रहे स्वाद सभी आनन्द से उन मीठे फलों का,
कलकल करती नदी में बहता जल करता जा रहा तृप्त पथिक को,
दे रहा नवजीवन सूर्य पशु पक्षी प्रकृति और मानव को जल कर स्वंय।
रहने दो प्रज्ज्वलित ज्ञान पिपासा की अग्नि को, न बुझने पाये ये कभी,
बांटते रहो सदा अर्जित ज्ञान अपना, न रहे परन्तु दंभ इसका तनिक भी,
करते रहो ग्रहण ज्ञान विनम्रता पूर्वक मिल जाये शिक्षक जो भी राह में,
अभिमान है शत्रु सबसे बड़ा ज्ञान का, न आंकना कभी कम किसी को अपने से,
जीते रहो विनीत जीवन विद्यार्थी का तो हो जा्येगा लेना सफल जन्म मानव का।।
