सारंग-सुमन
सारंग-सुमन
हे अचले! तेरे तारक सारंग
ये सृष्टि के धवल मुक्ताहार
दीप बागों के उज्ज्वल धवल
जिससे है वन जुगनू सुकुमार।
मेरी कोमल कल्पना के तार
तरंगित उत्साहित उद्भ्रांत
हृदय में हिल्लोर करते रहते
भावों के कोमल-कोमल कान्त।
नालों-नालों की ज्योति
जगमग उर्मि पसार
ज्योतित कर रहे आज
किसलिए कालिमा का संसार।
ये परियों का सुंदर-सा देश
मृदुहासों का मृदुलमय स्थान
दिव्य ज्योत्स्ना में घुल-घुलकर
दिखता जैसे हो अम्लान।
मोहक तरंगिणी ने धो-धो कर
हिम उज्ज्वल कर लिया परिधान
आओ चलें प्रकाशित वन में
खोजे ज्योतिरिंगण वो अनजान।
मलय समीरों के मृदुल झोंकों में
कतिपय कंपित डोल-डोल
अंतर्मन में क्या सोच रहा
अनबोले रह जाते मेरे बोल।
स्वयं के ‘परिमल’ से सुशोभित
निज की अपनी ज्योति द्युतिमान
मुग्धा-से अपनी ही छवि पर
निहार पड़े स्रष्टा छविमान।
खुद की मंजुलता पर अचम्भित
देखे विस्मित आँखें फाड़
खिलखिलाते फूल-पल्लवों को देख
आत्मीयता से नयनों को काढ़।
सृजित हो रहे स्वर्ग भूतल पर
लुटा रहे उन्मुक्त विलास
अग्नि की सुंदरता का सौरभ
सुमन-सारंग का उल्लास।
कवि का स्वप्न सुनहला
देखे नयन ये बार-बार
हर पंक्ति-पंक्ति में रच डाली
नयनों की देखी साभार।
अनन्त के क्षुद्र तारे तो दूर
उपलब्धि के गहरे-गहरे पात
देव नहीं हम मनुजों की
प्रियतम है अवनी का प्रान्त।
बीते जीवन की वेदनाएं
अम्बा की चिन्ता क्लेश
वादी में सृजित किया तूने
मंजुल मनोहर आकर्षक देश।
स्वागत करो अरुणोदय का
स्वर्णिम शीशों पर पुष्कर विहार
विश्राम करे धवल तमस्विनी
आँचल में सोते हैं सुकुमार।
कितनी मादकता है बसी यहां
कुंडा-कुंडा है छन्दों का आधार
पुष्पों के पल्लव-पल्लव में बसा
सुरभि सौरभ सुगंध का भार।
विश्व के अकथ आघातों से
जीर्ण-शीर्ण हुआ मेरा आकार
अश्रु दर्द व्यथा वेदना से
परिपूरित है मेरा जीवन आधार।
सूख चुका है कब से
मेरे कलियों का जीवात्म
हृदय की वेदना कहती है
बचा विश्व में बस पयाम।
इक-इक पंक्ति से बन गई
मेरी कविता का संसार
लेखनी को घिस-घिस कर
उद्धृत किया अपना संस्कार।
आशा के संकेतों पर घूमा
सृष्टि के कोने-कोने हाथ पसार
पर अंजलि में दी ‘दुर्गा’ ने
आत्म तृप्ति का उपहार।
छोटे से जीवन के इस क्षण में
भरा अंतस् कण-कण में हाहाकार
भरत-भूमि तेरी सुंदरता पे
खड़ा सारंग-सुमन तेरे द्वार।
इक पल के मधुमय उत्सव में
भूल सकूँ अपनी वेदना हार
ऐसी हँसी दे दो दाता मुझको
नित दे सकूँ सबको हँसी बेशुमार।