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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

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कवि की कामना

कवि की कामना

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अभिनव उमंग लिये उर में

हँसती कामना कन्या रंग

माधुर्य से कर अपना सिंगार 

सजाते नित-नये उत्सव-आनंद

देवलोक के कुमारों संग

मन-विटप के पुलकित कुमार।। 


बिखरता आज वन-वन बसंत

‘परिमल’ से भरता सकल दिगंत

निसर्ग व्याकुल युवता से भरा 

कंपकंपा उठती रह-रहकर धरा

हर्ष से भर-भर के खिल उठते

मानों कवि! कुसुमों से वसुंधरा।।


तोड़ कूलों को अपगा देती है ताल

रहती बुनती चंद्र ज्योत्स्ना जाल

निश्छल शिशु-सा सोता है विश्व

लपेट वसन स्वप्नों में निढाल

निशिता का उत्कृष्ट-सा मृदु-हास

मानों कवि! कहता है अपना विलास।। 


तपित तन व्याकुल विरह वेदना

झर-झर नीर बहे नैनों से झरना

धाधि से दहक रहे सारे अंग

अविरल नि

र्झर बनकर बरस रहे संग

अश्रु संचित अगाध दुःखद उसाँस

मानो कवि! हृदय रत्न सकाश।।


न वाटिका का यह वैभव विलास

न कोरकों का यह मधुर सुवास

विटपों वल्लरियों का रुक्ष कतार

यही है; यही है! वाटिका श्रृंगार

मृत्यु का विपुल निर्दयी व्याघात

मानों कवि! तरुवर की है सूखी पात।।


रसीला जोबन स्वप्नों की भूल

जा अटकी धन-दौलत के जाल

कामना-तृष्णा का कर पान

मानवता हुई बड़ी अधैर्यवान्

शार-वृष्णि अदृश्य हो बढ़ाये क्लेश

मानों कवि! सचल सृष्टि अँचल देश।।


न कुसुमित हुआ उपवन सुकुमार

सारंग-शिखी का शाश्वत छविमान

क्षुब्ध रजनी का सोलह-श्रृंगार

अरुणोदय का तनिक-सा मुस्कान

अशांत अधीर जीवन अविद्वान

लिखो कवि! ये जीवन नहीं आसान।।



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