कवि की कामना
कवि की कामना
अभिनव उमंग लिये उर में
हँसती कामना कन्या रंग
माधुर्य से कर अपना सिंगार
सजाते नित-नये उत्सव-आनंद
देवलोक के कुमारों संग
मन-विटप के पुलकित कुमार।।
बिखरता आज वन-वन बसंत
‘परिमल’ से भरता सकल दिगंत
निसर्ग व्याकुल युवता से भरा
कंपकंपा उठती रह-रहकर धरा
हर्ष से भर-भर के खिल उठते
मानों कवि! कुसुमों से वसुंधरा।।
तोड़ कूलों को अपगा देती है ताल
रहती बुनती चंद्र ज्योत्स्ना जाल
निश्छल शिशु-सा सोता है विश्व
लपेट वसन स्वप्नों में निढाल
निशिता का उत्कृष्ट-सा मृदु-हास
मानों कवि! कहता है अपना विलास।।
तपित तन व्याकुल विरह वेदना
झर-झर नीर बहे नैनों से झरना
धाधि से दहक रहे सारे अंग
अविरल नि
र्झर बनकर बरस रहे संग
अश्रु संचित अगाध दुःखद उसाँस
मानो कवि! हृदय रत्न सकाश।।
न वाटिका का यह वैभव विलास
न कोरकों का यह मधुर सुवास
विटपों वल्लरियों का रुक्ष कतार
यही है; यही है! वाटिका श्रृंगार
मृत्यु का विपुल निर्दयी व्याघात
मानों कवि! तरुवर की है सूखी पात।।
रसीला जोबन स्वप्नों की भूल
जा अटकी धन-दौलत के जाल
कामना-तृष्णा का कर पान
मानवता हुई बड़ी अधैर्यवान्
शार-वृष्णि अदृश्य हो बढ़ाये क्लेश
मानों कवि! सचल सृष्टि अँचल देश।।
न कुसुमित हुआ उपवन सुकुमार
सारंग-शिखी का शाश्वत छविमान
क्षुब्ध रजनी का सोलह-श्रृंगार
अरुणोदय का तनिक-सा मुस्कान
अशांत अधीर जीवन अविद्वान
लिखो कवि! ये जीवन नहीं आसान।।